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________________ ७७] अष्टादशः सर्गः ८७१ सन्मार्गचर इति विरोधे राजाध्वरोधी चन्द्रसञ्चाररोधकः सन् सत्पथसंप्रवृत्त आकाशचारीति परिहारः। पङ्कजातः पापसमूहस्तस्य परिकृत्संपादकोऽपि सुवृत्तः सदाचारीति विरोध पङ्कजानां कमलानां परिकृत् पुष्टिकारकस्सन् सुवृत्तो वतुलाकृतिविभाति ॥७६॥ यः कश्यपान्वयतया मधुलिढिताय विक्षिप्तरूपतरुणाङ्गितसम्प्रदायः पीत्वैष फूल्लदरविन्दजमात्महस्तैः सारं सहस्रकिरणोऽस्ति मदाश्रितस्तैः ॥७७॥ य इत्यादि-यः सहस्रकिरणः सूर्यः कश्यपान्वयतया 'कश्यपस्य पुत्रो रविर्भवतीति' पौराणिकानां मान्यता, तामाश्रित्य कश्यपान्वयतया लसन् मधुलिहां भ्रमराणां हिताय भवति । तथा कश्यं मदिरारसं पिबन्तीति कश्यपास्तदन्वयतयाऽथवा कश्यं पाति रक्षति स कश्यपः कलारस्तदन्वयतया मधुलिहां मद्यपानां हिताय भवति स एवैषोऽधुना फुल्लदरविन्दजं विकसितकमलसम्भवं सारं तैरात्महस्तैः पीत्वा मदाश्रित उन्मत्तः खलु विक्षिप्तरूपतरुणाङ्कितसम्प्रदायोऽस्ति, विभिः पक्षिभिः क्षिप्त परित्यक्तं रूयं यस्य स चासौ तरुस्तेनाङ्कितः सम्प्रदायः प्रचारो यस्य सोऽथवा विक्षिप्तरूपैरुन्मत्तैस्तैस्तरुणयुवभिरङ्कित: सम्प्रदायो यस्य सोऽस्तीति ॥७७॥ सत्पथप्रवृत्तः-समीचीन मार्गमें चलने वाला है। परिहार पक्षमें-राजा चन्द्रमाके मार्गको रोकने वाला होकर भी सत्पथसंप्रवृत्तः-नक्षत्रोंके मार्गआकाशमें अच्छी तरह प्रवृत्त है । विरोध पक्षमें-पङ्कजातपरिकृत्-पाप समूहका सम्पादक होकर भी सुवृत्तः-समीचीन वृत्त-आचारसे सहित है। परिहार पक्षमें-पङ्कजात-कमलोंका परिकृत् पोषक होकर भी सुवृत्त-गोल है ।।७६॥ अर्थ-यतश्च यह सहस्रकिरण-सूर्य कश्यपके वंशमें उत्पन्न हुआ है, अतः मधुलिह-भ्रमरोंके हितके लिये है। अथबा कश्यप-मद्यपायीके कुलमें उत्पन्न हुआ है, अतः मधुलिह-मद्यपायी मनुष्योंके हितके लिये है। ऐसा यह सूर्य विकसित कमलोंमें उत्पन्न होनेवाले सार-मद्यको अपने किरणरूप हाथोंसे पीकर मदाश्रित-नशामें विमग्न हो गया है, अत एव इसका सम्प्रदाय विक्षिप्तरूपउन्मत्तप्राय तरुणों युवा जनांसे अङ्कित है । इसके पीछे यही उन्मत्ततरुण लगे रहते हैं, अथवा विक्षिप्त-पक्षियोंसे त्यक्त तरु-वृक्षोंसे अङ्कित है। प्रातःकालमें पक्षी वृक्षोंको छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं, यह स्वाभाविक है ॥७७।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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