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जयोदय-महाकाव्यम्
[७६ कमलानामपि मूर्खाणामनुरोध आग्रहस्तद्वान्, सर्वत्र जगति विभ्रमपरो भ्रमणकारक: संदिहानश्चैवं पुनः, तिमिलक्षणस्यान्धकारसमयस्य निशीथस्य भक्षकत्वात् तथा तिमिर्नाम मत्स्यजातिर्लक्षणं स्वरूपं यस्यैवंभूतस्य मांसस्य भक्षकत्वात्, गोलकरूपकत्वाद् वर्तुलाकारस्वादुत द्विजनकत्वादकुलीन आकाशचारी निम्नकुलसजातश्च भवति ॥७५।। यः पङ्कजातपरिकृच्च पुनः सुवृत्तो
राजाध्वरोधि अपि सत्पथसंप्रवृत्तः । एवं विरुद्धभवनोऽप्यविरोधकर्ता
हे विश्वभूषण ! विभाति दिनस्य भर्ता ॥७६।। य इत्यादि हे विश्वभूषण ! जगतामलङ्कार ! एष दिनभर्ता सूर्यः, विभिः पक्षिभिः रुद्ध भवनं गृहं यस्य सोऽपि अविरोधकर्ता भवतीति विरोधे विरुद्धमननुकूलं भानां नक्षत्राणां वनं निवसनं यस्यैवंभूतः सन् वीनां रोधस्य कर्ता न भवति पक्षिणां संचारोऽऽधुनास्ति यतः । यो राजाध्वरोधी राजमार्गप्रतिकूलः सन्नपि सत्पथसंप्रवृत्तः
जित होते हैं । यथा-सूर्यके पक्षमें-सूर्य, सत्संगमापकरणः-नक्षत्रोंके संगमको दूर करने वाला है, द्विजराविरोधो-चन्द्रमासे विरोध करने वाला है, सर्वत्र विभ्रमपरः-समस्त पृथिवीमें भ्रमण करने वाला है, जडजानुरोधी-कमलोंका अनुरोध करने वाला है, आकृतिका गोल है, तिमिलक्षणभक्षक-अन्धकारको नष्ट करने वाला है तथा स्वयं अकुलीन-पृथिवीमें लीन नहीं, अर्थात् आकाशमें चलने वाला है। अकुलोनके पक्षमें-अकुलोन मनुष्य, सत्संगमापकरणसत्पुरुषोंके संगमको दूर करने वाला है, द्विजराड्विरोधी-ब्राह्मणोंसे विरोध करने वाला है, सर्वत्र विभ्रमपर:-सब जगह सन्देह उत्पन्न करने वाला है, जडजानुरोधी-मूल्से अनुरोध-आग्रह करने वाला है, गोलक-जारज होनेके कारण अकुलीन है और मत्स्य आदिके मांसका भक्षक होनेसे निम्न कुलमें उत्पन्न है ।।७५।।
अर्थ हे जगद्विभूषण ! इस पद्यमें विरोधाभासालंकारसे सूर्यका वर्णन है अतः सब विशेषण विरोध और परिहार पक्ष में आयोजित होते हैं यथा विरोध पक्षमें यह दिनभर्ता-सूर्य, विरोधभवन-जिसका भवन पक्षियोंके रोधसे सहित है, ऐसा होकर भी अविरोधकर्ता-पक्षियोंके रोधका कर्ता नहीं है । परिहार पक्षमें-जिसे भ-नक्षत्रोंका निवास विरुद्ध प्रतिकूल है, ऐसा होकर भी अविरोधकर्ता-पक्षियोंके रोधको करने वाला नहीं है, अर्थात् पक्षियोंके संचारको करने वाला है। विरोध पक्षमें-राजाध्वरोधी-राजमार्गका विरोधी होकर भी
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