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संस्कृत में काव्य एवं महाकाव्य के प्रणयन का उत्साह पन्द्रहवीं शताब्दी तक आते-आते क्षीण पड़ जाता है । सम्भवतः भारतपर हुए विदेशी आक्रमणोंके दुष्प्रभाव से जैन विद्वन्मण्डली अछूती नहीं रही । इस शताब्दी में विरचित काव्योंमें दो ही विशेषतः उल्लेखनार्ह हैं - माणिक्यसुन्दरकृत - १. श्रीधरचरितमहाकाव्य तथा ब्रह्म अजित विरचित - २. अञ्जनाचरितकाव्य अथवा हनूमच्चरितकाव्य' ।
सोलहवीं शताब्दी में भी जैन संस्कृतकाव्यधारा सूखने नहीं पाई । भट्टारक शुभचन्द्र पाण्डवपुराणकाव्यकी २५ पर्वों में रचनाकी, जिसमें छः हजार श्लोक विद्यमान हैं । तेरहवीं शताब्दी में गुर्जरदेशीय विद्वान् भट्टारक वादिचन्द्र इसी नामसे काव्य की रचना कर चुके थे । अतः इस परवर्ती काव्यमें कविने विशिष्टता दिखाई है । आकार में यह ग्रन्थ पूर्ववर्ती काव्यसे द्विगुणित है । संस्कृत भाषा सरल एवं सरस है । ४६ वर्षोंके पश्चात् गुर्जरदेशीय विद्वान् वादिचन्द्रने एक दूसरे पाण्डवपुराणकाव्यका १८ सर्गों में प्रणयन किया । उपाध्याय पद्मसुन्दर का रायमल्लाभ्युदय तथा रविसागरगणिका साम्बप्रद्युम्नचरितम् उत्तम कृतियाँ हैं । यह शताब्दी पौराणिक काव्योंकी अन्तिम सीमा सिद्ध हुई ।
सत्रहवीं शताब्दी में जैन संस्कृत काव्यधारा सूखने लग गई थी। इस शताब्दीकी एक ही उल्लेखनीय रचना है - मेघविजयगणिकृत सप्तसन्धानमहाकाव्य । अट्ठारहवीं तथा उन्नीसवीं शताब्दियों में जैन विद्वानोंने संस्कृतवाङ्मयको किसी महाकाव्य कृतिसे अलंकृत नहीं किया । यद्यपि अन्य विधाओं में छिटपुट संस्कृत रचनाएँ तो अवश्य हुई हैं, तथापि पूर्वं शताब्दियों में सम्पादित कृतियोंके तुल्य उल्लेखनीय रचनाओंका अभाव हो रहा ।
बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध ( वि० संवत् १९९४ तथा सन् १९३७ ई०) में राजस्थानी वीरभूमिके सुपुत्र बालब्रह्मचारी वाणीभूषण भूरामलशास्त्री खंडेल - वालने अद्वितीय 'जयोदयमहाकाव्य' की रचना करके पूर्ववर्ती दो शताब्दियोंकी शुष्क काव्यधाराको पुनः प्रवाहित किया । चर्च्य महाकाव्य २८ सर्गों में निबद्ध है । इसमें जिनसेन प्रथम द्वारा प्रणीत महापुराण में पल्लवित ऋषभदेव-भरतकालीन जयकुमार एवं सुलोचनाके पौराणिक कथानकको पुष्पित किया गया है। इस महाकाव्यका नामान्तर 'सुलोचनास्वयंवर महाकाव्य' भी है- 'जयोदयापर - सुलोचनास्वयंवर महाकाव्य एकविंशतितमः सर्गः ' । इसके अन्य उपजीव्य साहित्य में उल्लेख्य हैं - महासेनकृत सुलोचनाकथा ( वि० सं० ८००), गुणभद्रकृत महा१. उपर्युक्त ग्रन्थ के अनुसार 'इनमें से संस्कृतमें १७वीं शताब्दीके विद्वान् ब्रह्मअजितने १२ सर्गमें एक हनुमच्चरित्रको रचनाकी है ।' भाग ६ पृ० १३९ ।
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