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________________ ६४ ] अष्टादशः सर्गः ८६३ जातस्य गैरिकस्याली परम्परा सैवेयं रक्तप्रभा व्योम्नि नभसोक्ष्यते । अथ च तस्यैव रकस्यैको भागशः सूर्यपादसंलग्नः सन् जलरुहा कमलेन सह संगत्य संगतिमासाद्य तत्रस्थेन मधुना धवलवर्णेन पुनर्धवलवर्णः परागो नाम पुष्परजो जातः ॥ ६३॥ निर्मूलतां व्रजति भो क्षणदाप्रणीति र्नास्ति प्रदीपभुवि कापिलसत्प्रतीतिः । स्याद्वाद एव विभवः प्रतिपल्लवं स भात्यर्हतो दिनकरस्य यथावदंशः ||६४ ॥ निर्मूलतामित्यादि - भो महानुभाव ! शृणु । क्षणदाया रात्र ेः प्रणीतिश्चेष्टाथवा अणदा यासौ प्रणीतिः क्षणिकमतनीतिः सुगतसूक्ता सा निर्मूलतां व्रजति प्रहाणिमाप्नोति । प्रदीपानां दीपकानां भुवि स्थाने लसन्ती शोभमाना या प्रतीतिः सा कापि नास्ति, तथैव कपिलानां कपिलानुयायिनां सती प्रतीतिर्नास्ति । प्रदीपभुवि ह्रस्वदीर्घप्लुतसंज्ञकस्वराणां स्थाने, शब्दे इत्यर्थः । एवं पल्लवं पल्लवं प्रति वृक्षस्य पत्र पत्र प्रति यद्वा पदो लवं लवं प्रति प्रत्यक्षरदेशमित्यर्थः, विभवः पक्षिसमुत्थो वादः स्यादेव | अथवा स्याद्वादे कथञ्चिद्वादे खलु विभवः सत्यार्थप्रकाशक : प्रभावः सोऽस्तीत्यर्हतः श्लाघनीयस्याथ च जिनवरस्यैव दिनकरस्य सूर्यस्य यथावदंशी भाति ॥ ६४॥ उत्पन्न हुई गेरुकी धूल उड़ी, वही धूलि आकाश में कालप्रभाके रूपमें दिखाइ देती है । उसी धूलिका कुछ भाग सूर्यके पादों चरणों (पक्ष में किरणों) में लग गया। जब सूर्य का पाद कमलपर पड़ा तब वह गेरुको धूलि कमलकी मधुके साथ मिलकर सफेद रङ्गकी पराग बन गई || ६३ ॥ Jain Education International अर्थ - भो महानुभाव ! सुनो, यह जो क्षणदाप्रणीति-रात्रिकी चेष्टा है, वह निर्मूलताको प्राप्त हो रही है, अर्थात् रात्रि समाप्त हो रही है ( पक्ष में बौद्धों की क्षणदाप्रणीतिः -क्षणिक मतनीति निर्मूल हो रही है । प्रदीपभुवि - दीपकोंके स्थानमें कुछ भी सुन्दर प्रतीति नहीं है, अर्थात् दीपकोंकी प्रभा समाप्त हो गई है, अथवा प्रदीप - ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत संज्ञक स्वरोंके स्थानभूत शब्दोंमें कुछ भी सुन्दर प्रतीति नहीं है, अर्थात् इस समय शब्दोंके उच्चारणमें ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत स्वरका भेद नहीं जान पड़ता । ( पक्ष में कापिल - कपिलानुयायी - सांख्योंकी कोई प्रणीति-नित्यवाद की स्थापना नहीं है ) । वृक्षोंके पल्लवपल्लव -पात-पातपर विभवो वादः स्यात् - पक्षियोंका कलरव हो रहा है, अथवा पलवपलव -अक्षर अक्षरमें अर्हन्त भगवान् का स्याद्वाद - कथंचिद् बाद ही दिनकरके अंशके समान विभववैभव - प्रभावको प्राप्त हो रहा है ||६४ || For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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