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________________ ६१ ] अष्टादशः सर्गः ८६१ हिंसात्मतां गतोऽध्वरो यज्ञो यस्य स भवति । उदितपिच्छानामुत्थापितपिच्छानां ताम्रचूडानां गणः समूहस्तस्य वृत्तिर्वादभाग् वादं शब्दं भजतीति तथाभूता स्याद् भवेत्, ताम्रचूडा वदन्तीत्यर्थः । अथवा उदितपिच्छानां मयूरपिच्छधारिणां दिगम्बराणां गणः समूहस्तस्य वृत्तिः प्रवृत्तिः स्याद्वादभाक् स्याद्वादमनेकान्तवादं भजतीति तथाभूता, भवतीति शेषः ॥ ६०॥ दृष्ट्वा विवादमिह शाखिपदेषु नानाभिन्नां स्थिति स्मृतिभवाधिगतेनिदानम् । तां पङ्कजातकलितामिति हासवृत्ति मस्त्येव निर्वृतिपथेऽथ सतां प्रवृत्तिः ॥ ६१ ॥ दृष्ट्वेत्यादि - -इह लोके शाखिनां वृक्षाणां पदेषु स्थानेषु यद्वा वेदानां शब्देषु वीनां पक्षिणां वादं शब्दकरणमुत विसंवादं नानानेकप्रकारकं दृष्ट्वा तथैव स्मृतिभवः कामस्तस्याधिगतिरुत स्मृतिभ्यो मनुप्रभृतिकृताभ्यो याधिगतिज्ञप्तिस्तस्याः स्थिति भिन्नामुच्छिन्नामनेकप्रकारां वा दृष्ट्वा । इत्यत एव च पुनस्तां प्रसिद्धां पङ्कजातैः कमले: कलितां स्वीकृतां हासवृत्ति विकासलक्षणामुतेतिहासानां पुरावृत्तग्रन्थानां वृति टिप्पणिकां व्यवस्थितिरूपेण पङ्कजातेन कर्दमसमूहेन कलितां दृष्ट्वा निदानादस्मात् कारणादेवाथ पुनः सतां नक्षत्राणामुत सज्जनानां प्रवृत्तिनिर्वृतिपथेऽस्ति ॥ ६१ ॥ रही है, अर्थात् मुर्गे बोल रहे हैं (पक्ष में मयूरपिच्छको धारण करनेवाले दिगम्बर मुनियोंकी वृत्ति स्याद्वाद वाणी को प्राप्त हो रही है और क्षणदा - रात्रिकी प्रवृत्ति सौगताय नियता- अच्छी तरह समाप्त हो गई है । ( पक्ष में सौगत - बौद्ध मतको प्राप्त हो गई है - क्षणिकवादको स्वीकृत कर रही है ||६०|| अर्थ — इस लोक में शाखिपद - वृक्षोंके स्थानोंपर होने वाले विवाद - पक्षियोंके कलकल शब्द को, कामकलाकी खण्डित स्थितिको और कमलों द्वारा प्राप्त विकासकी वृत्तिको देखकर सतां - नक्षत्रोंकी प्रवृत्ति निर्वृतिपथ - समाप्तिके मार्ग में हो रही है । तात्पर्य यह है कि इस समय वृक्षोंकी शाखाओं पर पक्षी चहक रहे हैं, रात्रिमें होने वाली कामकला भिन्न- खण्डित हो गई है, कमल हासवृत्तिविकासको प्राप्त हो रहे हैं और नक्षत्र विलुप्त हो रहे हैं । अर्थान्तर - विविध शाखाओंसे युक्त वेदोंके स्थानोंमें होने वाले विवादविसंवाद, स्मृति ग्रन्थोंके ज्ञानकी छिन्न-भिन्न दशा तथा इतिहासकी वृत्ति को पङ्कजातकलित - कर्दमसमूहसे लिप्त मलिन देखकर सतां - सज्जनोंकी निर्वृतिपथ - निर्वाण मार्ग में प्रवृत्ति हो रही है । भाव यह है कि संसारके दूषित - अधार्मिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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