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जयोदय-महाकाव्यम
[६० महतोदयेन रक्ताम्बरत्वमाकाशस्यारुणत्वमुत चार्कमहाशयेन रक्ताम्बरत्वं रक्तवस्त्रधारकसम्प्रदायित्वमितं प्राप्तम् । सद्विजैः पक्षिभिः कणभक्षशिक्षा धान्यादनतत्परताधिकृता प्राप्ता। अथवा द्विजैर्ब्राह्मणैः कणादनामाचार्यस्य शिक्षोपदेशोपलब्धिः स्वीकृता । तमसान्धकारेण पुनः सुष्ठु गतं गमनं निस्सरणं तत्र का दीक्षा निर्गमनप्रवृत्तिः सम्पादिता। अथवा सुगतस्य नाम बौद्धाचार्यस्य दीक्षा सम्पादिता ॥५९॥ कूटस्थतां खरमरीचिरुपैति तात !
भृष्टाध्वरो भवति वा द्विजराडिहातः । स्याद्वादभागुदितपिच्छगणस्य वृत्तिः
सा सौगताय नियता क्षणदाप्रवृत्तिः ॥६०॥ कूटस्थतामित्यादि-हे तात ! खरमरीचिः प्रखरकिरणः सूर्यः कूटे प्राक्पर्वतस्य शिखरे तिष्ठतीति तत्तामथ च खरः स्पष्टवक्ता मरीचि म सांख्यसम्प्रदायाचार्यः स कूटस्थतां नित्यवृत्तिमुपैति । अत एवेह द्विजराट चन्द्रमाः स भृष्टमध्व मार्ग राति गृह्णातीति भृष्टाध्वरो भवति । वाथवा विप्रवर्गो भृष्टो विकृतिमवाप्नोतिहिंसकदशा मुक्त्वा बलि
सूर्यने रक्ताम्बरता-आकाशकी लालिमा प्राप्त कर ली है। तात्पर्य यह है कि इस समय कमल विकसित हैं और सूर्योदयके कारण आकाश लाल-लाल हो रहा है। सब द्विजों-पक्षियोंने कणभक्षशिक्षा-दाना चुगनेकी शिक्षा प्राप्त कर ली है अर्थात् पक्षी दाना चुगने लगे हैं और अन्धकारने सुगत-अच्छी तरह चले जानेको कला सीख ली है । भाव यह है अन्धकार बिलकुल नष्ट हो गया है।
अर्थान्तर-अर्कमहोदयेन-सूर्य ग्रहके महान् उदयसे अपने मूर्ख पुत्रोंकी नानाभोग विलास सम्बन्धी संलग्नता देख किसी अर्क नामक वृद्ध कुटुम्बीने लाल वस्त्र पहिनने वाले सम्प्रदायको दीक्षा ले लो है। सब द्विजों-ब्राह्मणोंने अध्यात्मविद्याको छोड़ उदरम्भरी शिक्षाको प्राप्त किया है, अथवा कणाद ऋषि प्रणीत न्यायशास्त्रकी शिक्षा प्राप्त की है और अन्धकारने सुगत-बौद्धमतकी दीक्षा स्वीकृत की है ।।५९||
अर्थ-हे तात ! खरमरीचि-सूर्य, कूटस्थता-पूर्वाचलके शिखरपर स्थितिको प्राप्त हो रहा है (पक्षमें प्रखरववता-स्पष्टवादी मरीचि-सांख्यमतका प्रवर्तक) कूटस्थता-नित्यैकवादको प्राप्त हो रहा है। इधर द्विजराट् चन्द्रमा भ्रष्ट-छूटे हुए मार्गको प्राप्त हो रहा है (पक्ष में ब्राह्मण भृष्टाध्वर-हिंसक यज्ञको प्राप्त हो रहा है)। पूंछको ऊपर उठाने वाले मुर्गोंकी वृत्ति शब्दको प्राप्त हो
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