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________________ ८५८ जयोदय-महाकाव्यम् [ ५७ न क्वापि भाति-अधुना द्विजराजवंशः सुप्तोऽसि बाहुजसमाजसतां वतंस । कस्ते तुलाधर उदेति जनेषु वा यः ___ संविप्लवोऽत्र बहुधान्यसमीक्षणाय ||५७॥ न क्वापीत्यादि-हे बाहुजसमाजसतां वतंस ! हे क्षत्रियजनशिरोमणे ? अधुना द्विजराजस्य चन्द्रस्य वंशस्तारकासमाजो यद्वा द्विजराजानां विप्राणां वंशो न क्वापि भाति, तथापि त्वं सुप्तोऽसि नैतद्य क्तम् । वाऽथवा पुनर्जनेषु स कोऽस्ति यस्ते भवतस्तुलाधरः सादृश्यकरो विद्यते । अथवा वणिगस्ति । अत्र च प्रभातत्वाद् बहु अनल्पं च तद्धान्यं च तस्य समीक्षणायान्वेषणार्थ संविप्लवो वीनां पक्षिणां सम्यक्प्लव उद्गमनन्, अथवान्यस्य शूद्रस्य समीक्षणाय कः कीदृक् शूद्रः स्यादित्यादितर्कणार्थं बहुधा संविप्लवो विसंवादो भवतीति ॥५७॥ लिये हो रहा है-अपनी आश्चर्यकारी सुगन्धको प्रकट कर रहा है । अर्थान्तर-भारत नामक इतिहासके ग्रन्थमें जिसका विभव-वैभव प्रख्यात है, ऐसा धृतराष्ट्र नामका राजा जनहितके लिये कौरव-दुर्योधनादिकको देख रहा है, अर्थात् वह पाण्डवोंको उपेक्षितकर कौरवोंको ही जनहितकारी मान रहा है। यहाँ कृष्ण-श्रीकृष्ण कलिकालमें शोभायमान उत्सवके लिये प्रतीक्षारत हैं, अर्थात् पाण्डवोंको विजयी बनाकर कलिकालको भी आनन्द निमग्न करना चाहते हैं और पद्म-बलदेवको हम सौरभवि-देवोंके भो स्मय-आश्चर्यके लिये मानते हैं, अर्थात् पद्म अपने शौर्यसे देवोंको भी आश्चर्य चकित कर रहे हैं, ऐसा हम मानते हैं ॥५६॥ ___ अर्थ-हे क्षत्रियकुल शिरोमणे ! इस समय द्विजराज-चन्द्रमाका वंशताराओंका समूह कहीं भी सुशोभित नहीं हो रहा है अथवा ब्राह्मणोंका वंश कहीं भी प्रतिष्ठाको प्राप्त नहीं हो रहा है, फिर भी आप सो रहे हैं, उसके हितकी ओर आपकी दृष्टि नहीं है। मनुष्योंमें वह कौन है जो आपकी तुलासदृशताको धारण कर सके अथवा तुलाधर-तराजूको धारण करने वाला वणिक् कौन है ? यहाँ प्रभात हो जानेसे बहुधान्यसमोक्षणाय-प्रचुर अन्नके अन्वेषणके लिये, संविप्लव-अच्छी तरह अथवा सब ओर पक्षियोंका उत्पलवनउत्पतन हो रहा है, अर्थात् अत्यधिक अन्नकी खोजके लिये पक्षी सब ओर उड़ रहे हैं । अथवा अन्य-क्षत्रिय, ब्राह्मण और वैश्यसे अतिरिक्त शूद्रवर्णकी समीक्षा के लिये विसंवाद हो रहा है ॥५०॥ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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