SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 251
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयोदय-महाकाव्यम् [५४-५५ विभ्राजते सुमुख ! सम्प्रतिपद्य सानु चारित्रकल्पवशतितयेष भानुः । प्रोद्धिद्य मक्षु कमलं स्फुरता पराग __ भावेन भूरिभरिताखिलभूमिभागः ॥५४॥ विभ्राजत इत्यादि-हे सुमुख ! एष भानुः सूर्यः सानुमुदयाचलशृङ्गवनप्रदेश सम्प्रतिपद्य च पुनररित्रो भ्रमरस्य रक्षको यः कल्पो विचारस्तस्य वशवर्तितया, उत चारित्रकल्पस्य वशवर्तितया मक्षु शीघ्रमेव कमलं सरोज प्रोद्भिद्य यद्वा कस्यात्मनो मलं कश्मलं प्रोद्भिद्य स्फुरता प्रकाशमागच्छता परागभावेन मकरन्नोतापरागभावेन वीतरागपरिणामेन भूरि पुनः पुनर्भरितः सम्पूरितोऽसावखिलो भूमे गो येन स विभ्राजते शोभतेऽसौ ॥५४॥ लोकोन्वितो धृतविभावसुखश्रियासीत् सज्जो विधावुदितसत्कृतसम्पदाशीः । सद्यो विसर्गपरिणाममुपेत्य यावद् विभ्राजतेऽयि नृप ! केवलभृत् सतावत् ॥५५॥ लोक इत्यादि-योऽयं लोकः सर्वसाधारणो जनो भुवनदेशश्च स विधौ चन्द्रमसि यद्वा सद्भाग्ये उदिते सति धृता स्वीकृता विभावसुर्निशा येन तस्य खस्य नभसः श्रिया शोभया यद्वा धृतो विभावोऽशाश्वतभावो येन तस्य सुखस्येन्द्रियजन्यभोगविलासस्य श्रिया ___ अर्थ-हे समुख ! यह सूर्य उदयाचलके शिखरको प्राप्त कर अरित्र'-अलित्र भ्रमररक्षक भावकी वशवर्तिता (पक्षमें चारित्र रक्षाके भावकी वशवर्तिता) से शीघ्र ही कमल (पक्षमें आत्माकी कलुषता) को प्रोद्भिद्य-विकसित (पक्षमें नष्ट) कर प्रकट होने वाले पराग-मकरन्द (पक्ष में अपराग-वीतराग परिणाम) से पुनः पुनः पृथिवीके भागों-प्रदेशोंको भरता-परिपूर्ण करता हुआ देदीप्यमान हो रहा है ।।५४॥ अर्थ-हे राजन् ! जो यह लोक-जगत्, (पक्षमें सर्वसाधारण जन) है, वह रात्रिके समय विधु-चन्द्रमाका उदय होनेपर (पक्षमें विधि-सद्भाग्यका उदय होनेपर) विभावसुखश्रिया-रात्रियुक्त आकाशकी शोभासे (पक्षमें वैभाविक १. रलयोरभेदादरिः अलिः भ्रभरस्तं त्रायत इत्यरित्रः अलिरक्षको यः कल्पो विचार स्तस्य वशवतितया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy