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________________ ५३ ] अष्टादशः सर्गः ८५५ मृदुलताया भद्रताया आश्रयणानि सज्जनचेतांसि यानि किलोत्तमानि प्रशस्तानि तथा कौतुकानां कुसुमानामुत विनोदपरिणामानां भावयन्ति सन्ति तानि सतां नक्षत्राणामुत परोपकारिणां भावनाया विजयिनीं जयनकारिणीं खलतामाकाशप्रदेशपङ्क्तिमुत मूर्खतां हसन्ति तदुपहासं कुर्वन्तीति ॥ ५२ ॥ संहृत्य वै रजनिमित्यथ वीतराग वृत्ति गतश्चरति सत्स्वभिवृद्धभागः । योगीयते सहजलम्बकरः सुवृत्त भावेन भानुरपि भो जगदेकवृत्त ॥५३॥ संहृत्येत्यादि - भो जगदेकवृत्त ! जगत्येकं प्रधानमादर्शरूपं वृत्तं यस्य तस्य सम्बोधनम् । भानुः सूर्योऽपि वै निश्चयेन रजन रात्रि संहृत्याथ पुनर्वीतरागवृत्तिं गतः, विभिः पक्षिभिरितस्य सम्प्राप्तस्य रागस्य सुस्वरोच्चारणस्य वृत्ति गतः, सुवृत्तभावेन वर्तुलरूपतयोत सदाचारचेष्टितेन सहजमेव लम्बाः प्रसारिताः करा रश्मयो येन स योगीयते योगीवाचरति योगीव निश्चेष्टतया प्रलम्बमानहस्तो भवति । एवं च यः सत्सु नक्षत्रेषु साधुषु वा चरति अभिवृद्धां भां दीप्ति गच्छतीति सः, अथवा वृद्धः समुन्नतरूपो भागो देवादेशो यस्य स गीयते लोकैः कथ्यते स एवंभूतः ॥ ५३ ॥ फूलों के सद्भावसे युक्त तथा उत्तम प्रशस्त हैं, सद्भावनाविजयिनीं-नक्षत्रोंके सद्भावको जीतने वाली खलता - आकाश प्रदेशोंकी पंक्तिका उपहास करते हैं । अथवा मृदुलता - कोमलताके आधारभूत सज्जनों को वे चित्त, जो कि उत्तमउत्कृष्ट तथा कौतुकभाव - विनोदोंके सद्भावसे सहित हैं, सद्भावनाविजयिनींसज्जनोंकी भावनाको जीतने वाली खलतां - दुष्टता अथवा मूर्खताका उपहास करते हैं । अर्थ - हे जगत् के आश्रयभूत वृत्त-आचरणके धारक ! निश्चयसे सूर्य भी रात्रिको नष्टकर वीतरागवृतिं गतः - पक्षियोंके द्वारा प्राप्त सुस्वरोच्चारण रूप रागकी वृत्तिको प्राप्त ( पक्ष में रागद्वेष रहित वीतराग वृत्तिको प्राप्त) सुवृत्त - भाव - गोलाकार ( पक्ष में सदाचारसे युक्त ) सत्सु - नक्षत्रों में अभिवृद्धभाग -वृद्धिगत भा-दीप्तिको प्राप्त, ( पक्ष में सत्पुरुषों में वृद्धिंगत भागसे सहित) एवं सहजभाव लम्बकरः - सहजभावसे लम्बायमान किरणोंसे सहित (पक्षमें सहज स्वभावसे लम्बमान-नीचे लटकते हुए हाथोंसे सहित) होता हुआ योगीयते -योगीके समान आचरण करता है, अर्थात् ध्यानस्थ मुनिके समान जान पड़ता है । अथवा योगीयते - जो सूर्य, उपर्युक्त विशेषणोंसे युक्त कहा जाता है ||५३|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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