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अष्टादशः सर्गः
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शेषः । अत एव भुवि घरातलेऽस्मिन् करग्रहभृतः किरणकलापयुक्तस्योत विवाहितस्य सपत्नीकस्य भानोः सूर्यस्य धामनिष्ठा तेजोवत्त्वमुत गृहस्थत्वमस्त्येव । पुनरुतायनं गमनमधिकृत्य प्रतिष्ठा प्रलुप्तिरुताध्ययने पठने या प्रतिष्ठा सार्थाद्वणिभावगतिभैर्नक्षत्रराधितेति विक् ॥ ४६ ॥
भानुस्तपोधन
इवाय मिहाभ्युदेति
निःशर्व त्वमपि जगतस्तथेति ।
कोकः प्रसिद्ध विभवो गृहिणीमुपेतः
कौपीनभावमयते वनवासिचेतः ॥४७॥
भानुरित्यादि - इहायं भानुः सूर्यः स तपोधनो धर्मसम्पत्तिस्स तपोधनस्तपस्वी वाभ्युदेति समुन्नतिमुपैति तथा शर्वरी रात्रिः स्त्री च तबस्तित्वं शर्वरीत्वं ब्रह्मचारित्वं तदपि जगतः सर्वजनसमुदायस्यास्ति, प्रसिद्धश्चासौ विभवः पक्षिजन्मा तथा प्रसिद्धो विभवः सम्पत्तिमद्भावो यस्य सोऽसौ कोको गृहिणीं सधर्मिणोमितो भार्यया संयुक्तो जातो गृहस्थोऽस्तीति कृत्वा वनवासि 'वने जले वासो निवासो यस्य तद्वनवासि कमलं च पुनरितः कौ पृथिव्यां पीनभावं प्रफुल्लावस्थामुत वनवासिनां वानप्रस्थानां चेतो मानसं तत्कौपीन
चिड़िया आदि श्रेष्ठ पक्षियोंमें उत्तम श्रावकपना देखा जाता है - वे चक चक आदि विविध शब्द सुना रहे हैं ( पक्षमें उनमें वानप्रस्थ दशा विद्यमान है ) । करग्रहभृत्-किरणोंके समूहसे युक्त ( पक्ष में पाणिग्रहण - विवाह संस्कारसे युक्त ) सूर्य में धामनिष्ठा - गृहस्थता दिखाई दे रही है और भ-नक्षत्रोंने अध्ययनशीलता प्राप्त को है ( पक्ष में ब्रह्मचर्य आश्रम ग्रहण किया है) । इस तरह यहाँ पृथिवी पर चारों आश्रमोंको स्थिति विद्यमान है ॥ ४६ ॥
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अर्थ - तपोधन - घामरूपी धनसे सहित यह सूर्य, तपोधन- तपस्वी ऋषिके समान यहाँ अभ्युदयको प्राप्त हो रहा है । निःशर्वरीत्व - रात्रिका अभाव (पक्षमें स्त्रीका अभाब ) समस्त जगत्को है ही । प्रसिद्ध विभव - जिसका जन्म प्रसिद्ध पक्षीसे हुआ है, ऐसा कोक- चक्रवाक प्रसिद्धविभव - प्रख्यात सम्पत्ति वाला होता हुआ, गृहिणी - स्त्रीको प्राप्त हो रहा है और इधर को- पृथिवी पर वनवासिकमल, पीनभाव-विकसित होने के कारण स्थूल भावको प्राप्त हो रहा है ( पक्ष में वनवासी-वन में निवास करने वाले वानप्रस्थों का चेतः- चित्त अन्य सब वस्त्र
१. 'शर्वरी तु त्रियामायां हरिद्रायोषितोरपि' इति विश्वलोचनः । २. 'जोवनं भुवनं वनम्' इत्यमरः ।
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