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________________ जयोदय-महाकाव्यम् समुत् प्रसन्नचित्तोऽस्ति तावत् । इत्येवमितेरनुभवनशीलमनुजे: कल्यस्य प्रभातस्य प्रभावः प्रत्युत्थापनकरणं तद्वशतः प्रतिबोधनाम सचेतनत्वमेव स एव चैकान्तवादो रह:स्थानस्थितिकरणं तस्माद्विनिवृत्तिर्येषां तद्भावेन पुनरश्रमित्वं स्वस्थत्वं च सम्प्रापितम् । यद्वा वीरस्य श्रीवर्धमानतीर्थकर्तुरुदिते संबविते मते समुक्तिः सशक्तिमितर्मनुजः कलेः कालस्याप्रभावो मुग्धत्वाभावस्त्वद्वशतः प्रतिबोधनाम कर्तव्यकर्मणि दत्तावधानत्वमेवैकान्तवादो हठवृत्तिस्तद्विनिवृत्तितयाऽनेकान्तवादाश्रयणेन चतुराथमित्वं वणि-गृहस्थ. वानप्रस्थषिनामकाश्चत्वार आश्रमास्तद्वत्वं च सम्प्रापितमिति वयं संवदामस्तवाने यतस्त्वं विद् विचारशीलोऽसि । तदेव स्पष्टयति कविः ॥ ४५ ॥ कञ्जोच्चयेन विकचस्वमवापि तात सुश्रावकत्वमिति पक्षिवरेष्विहातः । भानोः करग्रहभृतो भुवि धामनिष्ठा भैराश्रिता पुनरुताध्ययनप्रतिष्ठा ॥४६॥ कजोच्चयेनेत्यादि-हे तात ! पूज्यवर ! कजानां कमलानामुच्चयेन विकचत्वं प्रस्फुरणमुत च केशरहितशिरस्कत्वं संन्यस्ताश्रमे प्रविश्य केशलुञ्चनमवापि । पक्षिवरेषु चटकादिषु सुश्रावकत्वं चकचकेत्यादिमधुरशब्दकरणं तथा वानप्रस्थत्वं चेह दृश्यत इति इसलिये अनुभवशील मनुष्योंने प्रातःकालके प्रभाव वश प्रबोधको प्राप्त हो एकान्त वासका परित्याग कर स्वस्थता प्राप्त की है, अर्थात् विचारशील मनुष्योंने विचार किया कि जब पक्षी भी घोंसलोंसे निकलकर कलकल शब्द करते हुए प्रमुदित हो रहे हैं, तब हमलोगों का एकान्त स्थानमें निद्रानिमग्न रहना अच्छा नहीं है, इस विचारसे मनुष्योंने एकान्त स्थानोंका त्याग कर प्रबुद्ध हो स्वस्थताको प्राप्त किया है। अथवा-भगवान् महावीरके द्वारा समर्थित मत-अनेकान्तवादमें समुदितसंगठित हुए मनुष्योंने कलिकालके अप्रभाववश अर्थात् कलिकालसे प्रभावित न हो प्रबोधको प्राप्त किया अर्थात् अपने कर्तव्य कर्मका निर्धार कर ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और ऋषित्व इन चार आश्रमोंको प्राप्त किया तथा एकान्तवादको छोड़कर स्वस्थताका अनुभव किया। हे राजन् ! आप यह सब जानते हैं, अतः हम कहते हैं कि आप ज्ञानी हैं ॥ ४५ ।। ' अर्थ-हे पूज्यवर ! इस समय कमलोंके समूहने विकचत्व-विकास को प्राप्त किया है । पक्षमें संन्यास धारण कर केशलुञ्चन की अवस्था को प्राप्त किया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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