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________________ ४४-४५] अष्टादशः सर्गः ८४९ प्रसन्नभावेन वा पूर्ण सम्भूतमिति । पुत्रीत्पत्तिसमये द्विजलोकस्योक्तिर्वन्दिमोक्षणं च भवतीत्यत्रापि ॥४३॥ यत्नोऽमृताश्रमपरेण च रवेन तात ख्यात ! प्रभातहविरासन एष जातः । भिन्ने भवत्यमृतधामनि नाम शुम्भत् स्वर्णस्य संकलितुमत्र नवीनकुम्भम् ॥४४॥ यत्न इत्यादि-हे तातख्यात ! महोदय ! भवति तारासहितेऽमृतधामनि चन्द्रमसि तथा क्षीरपात्र भिन्ने नष्टे सति, अमृतानां देवानामाश्रमः स्वर्गस्तत्परेण तेनैव दुग्धाश्रमाधिकारिणा खेनाकाशेन प्रभात एव हविरासनो वह्निस्तस्मिन् स्वर्णस्य कनकस्य शुम्भत् शोभमानं नाम नवीनकुम्भं संकलितुं निर्मातुमत्र यत्नो जातः, स युक्त एवेति भाव ॥४४॥ वीरोदिते समुवितरिति संवदामः कल्यप्रभाववशतः प्रतिबोषनाम । सम्प्रापितं च मनुजैश्चतुराश्रमित्व मेकान्तवावविनिवृत्तितयासि वित्त्वम् ॥४५॥ वीरोदित इत्यादि-हे चतुर! जयकुमार ! शणु। विपक्षी रोहिते कलकलकरणे जा रहे हैं और इसी कारण यह समस्त जगत् आमोद-हर्ष अथवा सुगन्धसे परिपूर्ण हो गया है ॥४३॥ ____ अर्थ-हे महोदय ! जब भवत्-नक्षत्र युक्त अमृतधाम-चन्द्रमा अथवा दुग्धपात्र नष्ट हो गया-फूट गया, तब अमृताश्रम-स्वर्गरूप दुग्धाश्रमके अधिकारी आकाशने प्रातःकाल रूपी अग्निमें स्वर्णका शोभायमान नवीन घट बनाने का प्रयत्न किया। भावार्थ-पूर्व दिशामें उदित होता हुआ लाल-लाल सर्य ऐसा जान पड़ता है मानों आकाश रूपी दुग्धाधिकारीके द्वारा अग्निमें तपाकर स्वर्णका नवीन घट बनाया जा रहा हो । चन्द्रमा रूपी घटके नष्ट हो जानेपर नवीन घटका बनाया जाना उचित है। चन्द्रमा रूपी चाँदीका मटका फूट गया, अतः अब मजबूती की दृष्टिसे सुवर्णका घट बनाया जा रहा है ॥४४॥ अर्थ-हे चतुर! विचारशील राजन् ! पक्षी कलकल करने में प्रसन्न हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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