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अष्टादशः सर्गः तारापतिहि नलिनीमलिनोविधाय
तत्प्रीतिवेऽभ्युदयतीह न संविधा यत् । तारा निगुह्य सहसास्तगिरि प्रयाता
जिहेति तत्करगताः कति वीक्ष्य वाताः॥४०॥ तारापतिरित्यादि-ताराणां पतिश्चन्द्रमा नलिनीः कमलवल्लीमलिनीर्मुद्रिततया म्लानरूपा विधाय रात्रावधुना पुनस्तासां कमलिनीनां प्रीतिवे सूर्येऽभ्युदयति सम्पन्नभावं गच्छति सतोह यद् यस्मात्कारणात् संविधा निवसनयोग्यता नास्ति, तदिवं मनसि कृत्वा सहसा तारा निगुह्य संगोप्य स्वयमस्तगिरि प्रयाता चरमाचलं गतवान्, सोऽसौ तास्ताराः कतिचित्संख्याकास्तस्करगतास्तस्य सूर्यस्य करे प्रकाशे हस्ते च गच्छन्ति पतन्तीति तत्करगता वीक्ष्य जिल्लति चिन्तितो भवति लज्जते वा। होत्युत्प्रेक्षायां समस्ति ॥४०॥ निःस्नेहजोवनतयापि तु दोपकस्य
संशोच्यतामुपगतास्ति क्शा प्रशस्य । संघूर्ण्यमानशिरसः पलितप्रभस्य
यद्वन्मनुष्यवषो जरसान्वितस्य ॥४१॥ निःस्नेहेत्यादि-हे प्रशस्य ! प्रजाजनैरखिललोकैः श्लाघनीय ! जरसान्वितस्य वृद्धस्य मनुष्यवपुषो नरशरीरस्य यवृत्तत् दीपकस्यापि पलितप्रभस्य पलभावं क्षणिकता मिता पलिता प्रभा यस्य, पक्षे पलितं श्वेतकेशत्वं तस्य प्रभा यस्य, अत एव घुग्रंमानशिरसो वृद्धस्य यथा शिरो घूर्णते, तथास्तप्रायदीपकस्य शिखापि प्रकम्पत एवेति, स्नेहेन तैलेन
अर्थ-ताराओंका पति चन्द्रमा रात्रिके समय कमलिनियोंको मलिन-मुद्रित करता रहा, अब प्रातःकाल जब कमलिनियोंको प्रीति प्रदान करने वाला सूर्य अभ्युदयको प्राप्त हुआ तब उसने विचार किया कि अब यहाँ रहना उचित नहीं। यह विचार कर वह अपनी स्त्री रूप ताराओंको छिपाकर शीघ्र ही अस्ताचलकी ओर चला गया, पर जाते-जाते उसने देखा कि कुछ तारा सूर्यके कर-प्रकाश अथवा हाथमें पड़ गई हैं, इससे वह चिन्तित हो रहा है अथवा लज्जित हो रहा है ॥४०॥ ___ अर्थ-हे श्लाघनीय ! जिसका शिर काँप रहा है और बाल सफेद हो गये हैं, ऐसे वृद्ध मनुष्यके शरीरकी दशा-अवस्था जिस प्रकार स्नेह-प्रीति रहित जीवन होनेसे शोचनीय हो जाती है, उसी प्रकार जिसका अग्रभाग कांप रहा है
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