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८४६ अयोदय-महाकाव्यम्
[३९ भूता सती मौनिनी मौनयुक्ता निमीलिता जाता शशभूचनाश्च शोचनीयं देन्यमेति किलोत्प्रेक्षायाम् ॥३८॥ रात्रीमुखेऽमलरुचे विरहं विहाय
सन्तप्ततां गुमणिसन्मणये तथा यत् । श्रीचक्रवाकमिथुनं मिलतीदमछ
राजन् मुवचनरसंस्नपनं प्रपद्य ॥३९॥ रात्रीमुच इत्यादि-हे राजन् ! पत्किल श्रीचक्रवाकमिथुनमस्ति तबद्यामलाचे उज्ज्वलकिरणाय चन्द्रमसे रात्री मुञ्चति परित्यजतीति रात्रिमुक्तस्मै तु विरहं वियोगं संतप्तता व शुमणिसम्मणये सूर्यकान्तोत्तमरत्नाय विहाय त्यक्त्वा मुगभुमरेण प्रसन्नतासूचकनयनजलप्रवाहेण च संस्नपनं प्रपद्य परस्परं मिलति । तौ च सूर्यकान्तचन्द्रमसो सज्जनरूपावतस्तत्स्वीकुरुतः, परतुःखहरणस्वभावत्वात् । यद्वाऽमलरुचे समुज्ज्वलममसे जनाय सत्सुमणिरूपाय सज्जनराजाय विरहसन्तप्सतानामकवस्तुयं विहाय बत्वा चक्रवाकमिथुनं मिलति सत्समागमे यत्किञ्चिरप्यात्मीयं वस्तु वत्वेव सम्मेलनं क्रियत इति समाचारः सत्सम्मेलनं जातमिवानीमिति यावत् ॥३९॥
गई-पूनिमीलित हो गई और चन्द्रमा दीन दशाको प्राप्त हो रहा है ॥३८॥
अर्थ-हे राजन् ! यह जो चकवाचकवीका जोड़ा है, वह रात्रिको छोड़ने वाले तथा उज्ज्वल कान्तिके धारक चन्द्रमाको अपना विरह और सन्मणिसज्जनोत्तम (पक्ष में नक्षत्रोत्तम) सूर्यके लिये अपनी सन्तप्त दशा देकर हर्षाश्रुओंके झरनेमें अच्छी तरह स्नानकर इस समय मिल रहा है।
भावार्य-चकवा-चकवीका युगल रातभर विरह एवं संतप्त दशासे दुःखी रहा। प्रातःकाल जब चन्द्रमा रात्रिको छोड़कर जाने लगा तब उसने उसके लिये अपना विरह सौंप दिया-तुम भी हमारी तरह रात्रिके विरहका अनुभव करो और सूर्य जब उदित हुआ तब उसके लिये अपनी संतप्त दशा दे दीतुम भी दिनभर संतप्त दशाका अनुभव करो। यतश्च चन्द्रमा अमलरुक्उज्ज्वल रुचि वाला था और सूर्य सन्मणि-सज्जनोंमें मणिके समान श्रेष्ठ था, इसलिये दोनोंने उनके विरह और संतापको लेकर स्वयं विरह और संतापका अनुभव किया। चन्द्रमा और सूर्यकी इस उदारतासे चकवा-चकबीके नेत्रोंसे हर्षाश्रुओं का झरना बहने लगा। उस झरनेमें अच्छी तरह स्नानकर दोनों मिल रहे हैं ॥३९॥
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