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________________ ३८] अष्टादशः सर्गः ८४५ वाणी कमलस्यानदेश उच्चति स्फुटीभवितुमुद्गच्छति । किं वा जलजस्य उलयोरभेवाज्जडजस्य मूर्खजनबालकस्यापि वाणी वागुच्चलति प्रव्यक्ता भवति । तस्मादिह लोके भानां तारकाणामुदयः कश्चिदपि नास्ति । यद्वा भो इति सम्बोधनात्मकमव्ययं मत्वा पुनरदयो बयाहीनः कश्चिदपि जनो न भाति । विचारस्य पक्षिसंचारस्योत मनस्कारस्य भावाखतोः श्रीवद्ध'मान उद्वमनशीलो यस्तरणिः सूर्यस्तस्योचिता योग्या प्रभा कान्तिरुत श्रीवर्धमानोऽन्तिमस्तीर्थकृत् स एव तरणिः सूर्य इव तस्य प्रभा वा रुचिता स्वीकृता भवतीति ॥३७॥ चन्द्रोऽस्पृशत्कमलिनीमहसत्कमोदि न्येतद्वयेऽरुणदृगर्यमराड् विनोदिन् । नागभ्युदेति किल तेन कुमद्वतीयं मौनिन्यभूच्छशभूवेति च शोचनीयम् ॥३८॥ चन्द्र इत्यादि-हे विनोदिन् ! विनोदरसिक राजन् ! चन्द्रः कमलिनीमन्जिनीमस्पृशत् पस्पर्श, के जले मोदत इत्येवं शोला कमोदिनी करविणी अहसत् जहास, परस्त्रीस्पर्शकरं स्वपतिं दृष्ट्वा मात्सर्येण जहासेति यावत् । एतयोरनुचितकार्ययोदयं तस्मिन् अरुणदृग् कोपारुणितलोचनः अर्यमा सूर्य एव राट् राजा नाग झगिति अभ्युवेति सम्मुखमागच्छति । तेन किलेयं कमोदिनी कुमुदिनी कुमुदती कुत्सिता मुद् हर्षो विद्यते यस्यास्तथा विकसित हो रही है, नक्षत्रोंका कुछ भी उदय नहीं है-एक भी भ-नक्षत्र विद्यमान नहीं है, सर्वत्र विचारभाव-पक्षियोंके संचारका सद्भाव है और शोभासे बढ़ते हुए तरणि-सूर्यकी उचित-योग्य प्रभा दीप्ति विस्तृत हो रही है ॥३७॥ ___ अर्थान्तर-इस समय सद्वृत्ति-रात्रि भोजन त्याग आदि सत्पुरुषोंका आचरण अशनक-रात्रिभोजी पुरुषोंके द्वारा नाशको प्राप्त हो रहा है, जलजा-मूर्ख पुत्रोंकी वाणी प्रभावको प्राप्त हो रही है। यहाँ कौन अदयदयाहीन नहीं है-सर्वत्र दयाका अभाव दिख रहा है। इस प्रकारके विचारसे अनन्त चतुष्टयरूपी लक्ष्मीसे युक्त श्रीवर्धमान स्वामीको प्रभाका विस्तार अथच जन्म लेना उचित ही है, क्योंकि अधर्मका विस्तार होनेपर उसका नाश करनेके लिये तीर्थकर भगवान् का जन्म होता ही है ॥३७॥ अर्थ-हे विनोदरसिक ! चन्द्रमाने कमलिनीका स्पर्श किया, यह देख कुमुदिनीने हँस दिया। इन दोनों कार्योंपर क्रोधसे लाल-लाल नेत्र करता हुआ सूर्यरूपी राजा शीघ्र ही उदयको प्राप्त हो रहा है। इससे कुमुदिनी तो मौन लेकर बैठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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