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________________ संस्कृत काव्यरचनाको दिशामें दक्षिण भारत, गुजरात तथा राजस्थान के विद्वानों को मुख्यतः श्रेय प्राप्त है । ईसाकी सातवीं शताब्दीसे, हमें जैन विद्वानों द्वारा प्रणीत काव्यरचनाएँ उपलब्ध हैं । उनमें रविषेण द्वारा विरचित पद्मचरित या पद्मपुराणको प्रथम संस्कृत रचना कहा जा सकता है। जटासिंह नन्द्याचार्य द्वारा प्रणीत वराङ्गचरित महाकाव्य भी सप्तम शताब्दीकी कृति है । अष्टम शताब्दी में स्थित महाकवि धनञ्जयकी द्विसन्धानका व्यम् अथवा राघवपाण्डवीयम् नामक रचना संस्कृतवाङ् मयकी अनतिसाधारण एवं प्रसिद्ध कृति मानी जाती है । इसी शताब्दीकी दो अन्य काव्यकृतियाँ भी उल्लेखनीय हैं - १. कर्नाटकदेशस्थ पुन्नाटसंघीय जिनसेन विरचित हरिवंशपुराण महाकाव्य अथवा अरिष्टनेमि पुराणसंग्रह तथा २. राजस्थानी जैन विद्वान जिनसेन एवं गुणभद्र द्वारा संदृब्ध महापुराण ( आदिपुराण ) | नवम शताब्दीको दो रचनाएँ महनीय हैं—गुणभद्र एवं लोकसेन रचित उत्तरपुराण तथा हरिषेणकृत बृहत्कथाकोश | कुछको छोड़कर प्रारम्भिक कालसे सोलहवीं शताब्दी तक पौराणिक शैली में काव्यों तथा महाकाव्योंकी रचनाका क्रम बना । इसलिए ऐसी कृतियों को पौराणिक रचना नाम दिया जा सकता है। पौराणिक युग कहना अधिक संगत नहीं जँचता क्योंकि तत्समकालीन ऐतिहासिक एवं अलंकारप्रधान शास्त्रीय महाकाव्यों की भी रचनाएँ प्राप्त होती हैं । कवियोंने पौराणिक रचनाओं के साथ प्रायः पुराण शब्दका प्रयोग भी किया है। पौराणिक काव्य प्राय : बृहत्काय भी होते थे । उदाहरणार्थ महापुराण (आदिपुराण) ७६ पर्वों में लिखा गया विशाल ग्रन्थ है । हरिवंश पुराण महाकाव्य ६६ सर्गों में निबद्ध है । दसवीं शताब्दी में वाग्भटने नेमिनिर्वाणमहाकाव्य और महासेन सूरिने प्रद्युम्न चरितकाव्य रचा। ये वाग्भट वाग्भटालंकारके कर्ता वाग्भट से भिन्न तथा पूर्ववर्ती ठहरते हैं । नेमिनिर्वाण महाकाव्य के पद्य वाग्भटालंकारमें उद्धृत हैं । ग्यारहवीं शताब्दीसे जैन विद्वानोंने संस्कृतकाव्य और महाकाव्य में वैशिष्ट्य उपनत किया । पु ंगव ओडयदेव वादीभसिंहके 'क्षत्रचूडामणि' नामक लघुकाव्य के प्रत्येक पद्यका पर्यवसान सूक्तिमें होता है । ये संस्कृतगद्य लिखने में सिद्धहस्त थे । इनका गद्य-चिन्तमणि बाणभट्टकी कादम्बरीके समकक्ष माना जाता है । वादिराजसूरिकृत पार्श्वनाथ जिनेश्वर महाकाव्य (११२५ वि. सं.) १२ सर्गोंमें आबद्ध श्लाघ्य रचना है । शास्त्रीय दृष्टिसे संस्कृत वाङमयको समृद्ध बनाने में कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य (वि. सं. १२१६) का अनतिसाधारण योग रहा। उन्होंने व्याकरणादि विविध विषयों पर संस्कृत में ग्रन्थरचना तो की ही है, साहित्यिक दृष्टिसे भी उनका कृतित्व चिरस्मरणीय रहेगा। दस पर्वों में निबद्ध 'त्रिषष्टिशलाकाचरितम्' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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