SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तो संस्कृतमें बौद्ध न्याय ग्रन्थोंकी बाढ़-सी आ गई । जैन न्याय भी संस्कृत भाषा में पीछे नहीं रहा । बौद्ध और जैन विद्वानोंका ध्यान संस्कृत व्याकरण शास्त्रकी ओर गया। प्रथम शताब्दी स्थित जैन विद्वान् शर्ववर्माने कातन्त्र व्याकरण तथा चतुर्थ शताब्दी स्थित बौद्ध विद्वान् चन्द्रगोमीने चान्द्रव्याकरणकी रचना की । किन्तु उनके द्वारा अभी लोकहृदय-संस्पर्शी लोकसाहित्यको सृष्टिका श्रीगणेश संस्कृतमें नहीं किया जा सका था। इस कार्यका शुभारम्भ किया अयोध्यामें जन्मे ब्राह्मण अश्वघोषने । उनके द्वारा विरचित 'बुद्धचरितम्' लौकिक संस्कृत साहित्यकी उत्कृष्ट कृति है। यद्यपि सौन्दरनन्द भी उनकी ही रचना है, तथापि साहित्यिक गुणोंकी दृष्टि से बुद्धचरितम् कालिदासीय काव्यसे कथमपि न्यून नहीं है । बौद्ध संस्कृत साहित्यमें अश्वघोषप्रणीत काव्य आदिम भी है और अन्तिम भी। उक्त संस्कृत साहित्यमें संस्कृत साहित्यको अन्य विधाओंका विकास ही नहीं हो सका। इसके विपरीत जैन विद्वानों द्वारा विरचित कृतियोंमें काव्यकी विविध विधाओंके शवलतामय दर्शन होते हैं। इनमें महाकाव्य, लघुकाव्य, कथासाहित्य प्रबन्धसाहित्य, सन्धानकाव्य, चम्पूकाव्य, गीतिकाव्य, दूतकाव्य, सुभाषित, पादपूर्तिसाहित्य, नाटक-नाटिका ( दृश्यकाव्य ), स्तोत्रसाहित्य, प्रशस्ति साहित्य पट्टावलि तथा गुर्वावलि साहित्य, विज्ञप्तिपत्र साहित्य, गद्यकाव्य एवं साहित्यव्याख्याएँ संस्कृतवाङ्मयकी विशालनिधिके रूपमें हमें उपलब्ध हैं। जैन विद्वानोंने नूतन काव्यशेली में संस्कृत रचनाओंका शुभारम्भ ईसवीय तृतीय-चतुर्थ शताब्दीसे ही कर दिया था। किन्तु पांचवीं शताब्दी तक जैन काव्यवाङमयकी कृतियोंका परिचय अन्यत्र उल्लेखके द्वारा ही हमें मिलता है । परन्तु सातवीं शताब्दीसे सर्वाङ्गपूर्ण विकसित काव्यवाङमय उपलब्ध होने लगता है। यद्यपि जैनोंका धर्म प्रधानतया त्याग और वैराग्य पर बल देता है, तथापि जैन विद्वान् युगको आवश्यकताको दृष्टिगत रखकर काव्यप्रणयनमें प्रवृत्त हुए। उनके शुष्क उपदेशोंको प्रभावशाली ललित शैलीके बिना कौन सुननेको तत्पर होता । यद्यपि जैन मुनियोंको शृङ्गारमय कथाओं का श्रवण एवं उपदेश वर्जित था, तथापि श्रावक वर्गको इस प्रकारके साहित्य में रसोपलब्धि होती थी। युगानुरूपताको ध्यानमें रखकर जैन विद्वान् इस ओर प्रवृत्त हुए। साहित्यनिर्माणके क्षेत्रमें जैन विद्वानोंने सर्वतः प्रथम लोकरुचि की ओर ध्यान दिया। किन्तु गुप्तकालमें और उसके परवर्ती युगमें संस्कृत वस्तुतः पाण्डित्यपूर्ण विवेचनों तथा काव्यरचनाओं की भाषा बन गई थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy