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________________ प्रथ 00 0 Rosepperseenegroommassasses Sarsawalaodpoon ग से भूमिका संस्कृतभाषाका लालित्य जम्बूद्वीपके कवियोंको चिरकालसे अपनी ओर आकृष्ट करता रहा है । वैदिक ऋचाओंमें ऋषियोंने रूपकोंका आश्रय लेकर प्रकृतिकी अभिरामताको यथेष्ट रूपसे निबद्ध किया। यद्यपि उपनिषत्कालीन वाङ्मयमें संस्कृतभाषाका विश्लिष्ट स्वरूप विशेषतः निखर कर लोकके सामने आता है, तथापि लौकिक संस्कृतमें काव्यरूपताकी पूर्ण छवि वाल्मीकि वाङ्मयमें छिटकती है। लोकमङ्गलकारी आदर्श विषयवस्तुको रसात्माको समुचित भाषापरिधानके माध्यमसे इस प्रकार प्रतिपादित करना कि वस्तुतत्त्व रसिक जनोंके चित्तमें उतर सके। यही कविकौशल है, इसीमें कविके काव्यका सार्थक्य है तथा स्वयं की परितृप्ति है। साहित्य वह कृति है जो श्रोता अथवा पाठकके मनोवेगोंको तरंगित करने में समर्थ होती है। काव्यस्रष्टा जिस प्रकार चाहता है, काव्यसृष्टि करता है। ध्वन्यालोककारका कथन है कि काव्यरूपी अनन्त जगत्का प्रजापति कवि ही है, उसे यह जगत् जिस प्रकार रुचता है, इस जगत्को उसीके अनुरूप परिवर्तित हो जाना पड़ता है ___ अपारे काव्यसंसारे कविरेव प्रजापतिः । यथास्मै रोचते विश्वं तथेदं परिवर्तते ।। वैदिक कालसे ही स्थानीय बोलियोंका विकास होने लगा था। भाषाविश्लेषण द्वारा शिष्ट प्रयोगोंका निर्धारण किया जाने लगा था। इस प्रकार उस कालमें शिष्टभाषा और सामान्यभाषाकी सीमारेखा खिंच गई थी। 'मध्रवाचः' जनोंका एक पृथक् ही वर्ग था। भगवान् बुद्धके कालमें संस्कृतभाषाको विविध प्राकृतभाषाएँ विकसित हो चुकी थीं। भगवान् बुद्धने अपने उपदेश सामान्य जन तक पहुँचाने हेतु तदानीन्तन जनभाषाका प्रयोग किया था। भगवान् महावीरने भी अपने उपदेश संस्कृत भाषामें नहीं दिये। महाभाष्यकार भगवान् पतंजलिने परापर विद्याओंके निष्णात विद्वानोंको भी प्राकृतसे प्रभावित बताया है । भारतीय समग्र प्रदेशोंके व्यवहार को एकसूत्रतामें बाँधने लिए संस्कृत सेतुके रूपमें प्रधानभाषाकी भूमिकाका निर्वाह कर रही थी। सभी प्राकृतें संस्कृतसे संबद्ध थीं। अतः राष्ट्रिय व्यवहार के लिए संस्कृतभाषा सम्पर्कभाषा एवं साहित्यिक भाषाके रूपमें सबको मान्य थी । प्राकृतभाषाके मूल ग्रन्थों पर व्याख्याए संस्कृतमें रची जाती थीं। वात्स्यायनभाष्य और न्यायवात्तिकके सिद्धान्तोंके प्रत्याख्यानके लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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