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________________ जयोदय-महाकाव्यम् [ ३२-३३ भास्वानसौ क्वचन यापितसर्वरात्रि रम्भोजिनी विरहतोऽप्यतिदीनगात्रीम् । अङ्गीकरोति किल सम्भवता रसेन तां सानुरागकरचारकलावशेन ॥३२।। भास्वानित्यादि-वचनान्यत्रापरिचितस्थाने यापिता ब्यतीता सर्वा रात्रिर्पस्य सोऽसौ भास्वान् सूर्योऽपि पुनविरहतो वियोगावेतोरतिदीनगात्रों म्लानप्रायशरीरामम्भोजिनी कमलवल्लों तामिमा, सानावुदयनामपर्वतदेशे रागकरोऽरुणिमसम्पावकश्चार उद्गमनप्रकारस्तस्य तत्र वा या कला भागस्तदशेन, अथवानुरागेण प्रेम्णा सहितः सानुरागः स चासो करस्य हस्तस्य चार आलिङ्गनविशेषस्तस्य तत्र वा या कला चतुरता तशेन सम्भवता पयोचितेन रसेनाङ्गीकरोति किल ॥३२॥ पिग्वारुणीमनुभवन्विनिपातमेति योऽस्मत्सकाश उदयं विधुराप चेति । भासौ घृणापरफयेन्द्रविशाशु वन्त वासः परावृतममुख्य समस्तु सन्तः ॥३३॥' विगित्यादि-हे सन्तः ? असो भा शोणिमच्छविः कुतो जाता तद्ववामि । यत्किल यो विषुश्चन्द्रोऽस्मत्सकाशे मम सन्निषावुल्यमुद्गमनमुन्नतत्वं चाप लब्धवान् स एव पावणों विशां पश्चिमामनुभवन् तामनुगच्छन्निवानीमथवा वारुणी मदिरामनुभवन् पिबन् अर्थ-जिसने कहीं अन्यत्र पूर्णरात्रि व्यतीत की थी ऐसा सूर्य (पक्ष में नायक) विरहसे अत्यन्त दीन शरीर वाली कमलिनी (पक्षमें नायिका) को पर्वतशिखरपर लालिमा बिखेरने वाली किरणोंके उद्गमन सम्बन्धी कलाके वशसे (पक्षमें अनुराग सहित कर-हाथके संचार सम्बन्धी चतुराईके वशसे अङ्गीकृत कर रहा हैअपना रहा है ॥३२॥ ___ अर्थ हे सत्पुरुषो! पूर्वदिशामें जो यह लालकान्ति फैल रही है यह किससे उत्पन्न हुई ? मैं कहता हूँ सुनो, पूर्वदिशा सोचती है कि जो चन्द्रमा हमारे सन्निधानमें उदय (पक्षमें उन्नतदशा) को प्राप्त हुआ वही वारुणी-पश्चिम दिशा (पक्षमें मदिरा) का सेवन-(पक्षमें पान) करता हुआ विनिपात-अधोगमन १. एतस्य पाठान्तरम् अस्मत्सकाशमसको विधुरभ्युदेति, नाग्वारुणीमनुभवन्विनिपात मेति । प्राच्या परावृतपुनीतरदच्छवाया, यद्वास्तिकान्तिरयिनाथ घृणापरायाः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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