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जयोदय-महाकाव्यम्
[ २९-३० ग्वकारस्य चमू: सेना तत एव कं सुखं यस्य स, निशि रात्री चाचालता वावकत्वं जगाम। तस्मादुलूकतनयात् पुनरन्यः कतमो जनो यो मूको भवेत् किलास्मिन् मङ्गलसमये न स्वस्तिवचनं कुर्यादिति ॥२८॥ श्रीकरवेषु तु वलैविनमद्भिरेव
मभ्युन्नमद्भिरिव पारिरहेषु देव ! तं सन्दषत्सु परिणाममपूर्णमारात्
__ तुल्यत्वमञ्चति मिलिन्द इहाधिकारात् ॥२९॥ श्रीकरवेष्वित्यादि-हे देव ! विनमद्भिवणभावमात्रजदिलेश्छवनस्तैः श्रीकरवेषु रात्रिविकासिकमलेषु तथैवमेवाभ्युन्नमद्धिविकासभावं गच्छडिस्तैलारिवहेष्वरविन्देषु आरात् तमपूर्णमपर्याप्त परिणाम सन्वषत्सु इह प्रभातसमयेऽधिकारामिलिन्दः षट्पवस्तुल्यत्वमञ्चति समानभावमेति ॥२९॥ आवित्यसूक्तविपदोपहतप्रकार
हे धीश्वरासुरहितं सहसान्धकारम् । दृष्ट्वैव नालदलसद्धसितं विभाति
शोच्या तथास्ति कुमुदस्य तु मौनजातिः ॥३०॥ आदित्मेत्यादि-हे पीश्वर ! बुद्धिमन् ! यद्वा हे अधीश्वर ! स्वामिन् ! सहसा
अपेक्षा उसके संपल्लव-समीचीन पत्र विकासको प्राप्त होता है। अर्थात् सूर्यकी किरणोंके पड़नेसे कमलकी कलिकाएँ विकासको प्राप्त हो रही हैं और चूंकि तमश्चमूक-अन्धकारको सेनासे क-सुखका अनुभव करने वाला उलूक पक्षी रात्रिमें वाचालताको प्राप्त होता है-अत्यधिक बोलता है, अतः इस प्रभातके समय उलूकपुत्र-उल्लूके बच्चेके सिवाय दूसरा कौन मूक है, चुप बैठा है, अर्थात् कोई नहीं। तात्पर्य यह है कि सभी लोग स्वस्तिपाठ कर रहे हैं । केवल उलूक पुत्र-उल्लूके बच्चे-मूर्ख ही चुप बैठे हैं ॥२८॥ ___ अर्थ-हे देव ! इस समय कुमुद-मुद्रणभावको प्राप्त होनेवाले और कमल, विकसित भावको प्राप्त होनेवाले पत्रों-कलिकाओंसे एक समान अपूर्ण विकसित अवस्थाको प्राप्त हो रहे हैं, अतः अधिकारकी अपेक्षा भ्रमर उन दोनोंमें तुल्य. भावको-मध्यस्थ भावको प्राप्त हो रहा है।
भावार्थ-इस समय कुमुद न पूर्णरूपसे निमीलित हुए हैं और न कमल पूर्णरूपसे उन्मीलित-विकसित हुए हैं, अतः एक सदृश अवस्था होनेसे भ्रमर दोनोंमें समान भावको प्राप्त हो रहा है ।।२९।।
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