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________________ १५] अष्टादशः सर्गः ८३१ रूपं न भवतीत्यवन्ध्यभवनं तस्मे सार्थकतानिमितमुत प्रसवभावसम्पत्त्यर्थमिति कुसुमितां कोसुम्भरागसंयुक्तां शाटीमिता प्राप्तास्ति खलु पश्येति शेषः । तीर्थस्नाता स्त्री पतिसंयोगार्थमरणवर्णा शाटों परिदधाति तथासकौ सन्ध्यापि तावत् । अतः कारणात्तामीश्वरो जयकुमारस्तां प्रभातसन्ध्यामपि सफलयेत् स्वसंयोगेन सार्थिकां कुर्यात् सन्ध्यावन्दनां सम्पादयेदिति यावदिति हेतोस्त्वं विचक्षणवृक्तया भक्ती किल विचारशीला यतः समाजानुग्रहबुद्धया तं जयदेवनृपं क्षणं किञ्चित् समयमात्र मुञ्च ||१४|| श्राद्धे यथावनिमहेश्वरि ! विप्रजातः पूर्णोवर: ससुरभिश्च विभाति वातः । कोकोऽपि मङ्गतवरो धृतमोदकोऽतः सन्तोषिणां तु विनतिः कणकाय नोऽतः ।। १५ ।। श्राद्ध इत्यादि हे अवनिमहेश्वरि ! महाराशि ! श्राद्रे श्रद्धापूर्वक दानकाले यथा विप्रजातो ब्राह्मणपुत्रः सुरभिणा घेन्वा सहितः पूर्णोवर इष्टभोजनेन संभृतोवरो भवति, तथासाविवानों वातः पवनः ससुरभिः जलकमलप्रस्फुटभावात्सुगन्धयुक्तः पूर्णोवरो जलकणपरागसंग्रहयुक्तश्च विभाति । तथा मं पापं दुःखं वा गच्छन्ति ते मङ्गता बरिव्रिणस्तेषु वरः प्रधानोऽसौ वनितावियुक्तत्वात्कोकश्चक्रवाकपक्षी सोऽपि पुनरघुनात्र सार्थकता प्राप्त करनेके लिये ( पक्ष में बन्ध्यापन को दूर करनेके लिये) कुसुमानी रङ्गसे रंगी हुई लाल साड़ीको धारण कर चुकी है, इसलिये ईश्वर - राजा ( पक्ष में वल्लभ) जयकुमार अपने संयोग - समीचीन योगदान ( पक्ष में समागम) से उस प्रभात सन्ध्याको सफल कर सकें सन्ध्यावन्दनादिके द्वारा सार्थक कर सकें (पक्ष में सन्तानवती) कर सकें, अतः अपनी विचारशील दृष्टिके कारण क्षणभरके लिये उन्हें छोड़ दें। भावार्थ - जिस प्रकार स्त्री चतुर्थ स्नानके अनन्तर बांझपनका दोष नष्ट करनेके लिये सहज स्वभावसे लाल साड़ी पहनती है, उसी प्रकार सन्ध्याने भी अपनी निरर्थकताको नष्ट करनेके लिये छाई हुई लालीके बहाने लाल साड़ी पहिन रक्खी है, अतः उसे सार्थक करनेके लिये वल्लभ - जयकुमारको छोड़ें ॥१४॥ अर्थ - हे महाराज्ञि ! जिस प्रकार श्राद्ध में ब्राह्मणपुत्र मनचाहा भोजन मिलनेसे पूर्णोदर और दक्षिणामें सुरभि - गायकी प्राप्त कर ससुरभि होता है, उसी प्रकार इस प्रभात वेलामें वायु भी जलकण तथा पुष्प परागसे युक्त होनेके कारण पूर्णोदर - पूर्णमध्य है तथा विकसित कमलोंकी सुगन्धसे सुगन्धित हो रहा है। यही नहीं दुःखियों अथवा दरिद्रोंमें प्रधान यह चक्रवाक पक्षी भी घृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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