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________________ ८३० जयोदय-महाकाव्यम् [१३-१४ भिराशिकभिः ‘भद्रं भवत्विति' वाचनाभिरिति सेवितसुखा सुराद्विवासि । एवं तव स्तवनं श्रयामो वयं तवानुचरा इति ॥ १२॥ एषोऽस्ति मङ्गलमयः समयः प्रभात स्तत्तेथिनीह वशिनः शशिनः प्रभातः । ऐच्छन्मुखश्रियमिवानधिकारितातः बिम्बं पलाशदलतामयतेऽथवातः ॥१३।। एष इत्यादि-हे वशिनो जितेन्द्रियस्य तवाधीनस्य च जयकुमारस्यार्थिनि ! इच्छावति ! शृणु इति शेषः। एष प्रभातनाम समयः मङ्गलमयः सर्वेषामेव कल्याणकारकोऽ. स्ति । इह चात एव शशिनश्चन्द्रस्य बिम्ब प्रभातः (पञ्चम्यास्तसिल्प्रत्ययः) पलाशवलतामयते पलाशपत्रवन्निष्प्रभमभूदिति किल । ते तव मुखश्रियं त्वदीयाननशोभामैच्छदभ्यवाञ्छदनधिकरितातोऽपि यतस्ते मुखसाम्यवाञ्छनेन तस्य कलाडूनो जातुचिदधिकारो नास्तीति ॥१३॥ शाटीमिता कुसुमितामसको विभात सन्ध्याप्यवन्ध्यभवनाय सुभावितातः । मुञ्च क्षणं खलु विचक्षणदृक्तयात स्तामीश्वरः सफलयेदिति तं कृपातः ॥१४॥ शाटोत्यादि-हे देवि ! असको विभातसन्ध्यापि सुभावितातः सहजतया, वन्ध्या समस्तजनोंमें मोह-प्रीतिको उत्पन्न करने वाली हो। इसीलिये हम आपका स्तवन-गुणगान कर रहे हैं। यहाँ संस्कृत टीकामें श्लेषका आश्रय लेकर वाला, सुरा तथा लक्ष्मी आदिका पक्ष लेकर श्लोककी व्याख्या की गई है। उन सब पक्षोंको संस्कृत टीकासे जानना चाहिये ॥२॥ ___ अर्थ-वशो-जितेन्द्रिय अथवा तुम्हारे अधीन रहने वाले जयकुमारकी इच्छा रखने वाली हे सुलोचना देवि ! सुनो, यह मङ्गलकारी प्रभात समय है। यतश्च चन्द्रमाके बिम्बने तुम्हारे मुखको शोभा प्राप्त करना चाही थी, जबकि उसे इस प्रकारकी अधिकारिता नहीं थी, ततश्च अनधिकारिताके कारण ही वह प्रभाकी अपेक्षा पलाशदलताको प्राप्त हो रहा है, अर्थात् पलाश दलके समान निष्प्रभ हो गया है ॥१३॥ अर्थ-यह प्रभातसन्ध्या भी (पक्षमें सन्तानकी इच्छुक स्त्री) सहज स्वभावसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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