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________________ १२ ] स्वं अष्टादशः सर्गः मदनेकधुराशिकाभि Jain Education International वासुरासि हैं देवि ! सेवितसुखा मुखवासिकाभिः । लब्ध्वा मुकन्दगुणमन्यजनाय नाम मोहंकरीति तव संस्तवनं श्रयामः ।। १२ ॥ त्वमित्यादि - हे देवि ! सुलोचने ! मदनेकधुरा कामोत्पत्तिकरणक्रियावती अन्यजनाय सर्वसाधारणाय मोहंकरी निद्रादायिनी स्वयं तु सेवितसुखा कृतारामा लब्धविश्रामा सती मुकुन्दगुणमेनं जयकुमारं मुकारस्य रवं नाशस्तत्र वासिकाभिराशिकाभिरर्यात्तु कं सूर्यं ददाति सम्पादयतीति कन्दो दिवसस्तद्गुणमेनं लब्ध्वा त्वं वासुरा रात्रिरिवासि तथा रात्रिदिनमनुसरति तथा त्वमेनमनुभवसीति । तथा हे देवि ! मदनकधुस्त्वं मुकन्दगुणमेनं मुखवासिकाभिराशिकाभिरर्थात् कं सुखं ददातीति तद्गुणमेनं लब्ध्वा सेवितसुखा लब्धानन्दाऽथच सेवितं संपादितं सुकारस्य रवं यया सा वासुरार्थात् वारा रलयोरभेदाद्बाला नवयौवनासि अन्यजनाय मोहंकरी, यद्वामुकमेनं दगुणं दातारं जयकुमारमित्यपि । तथा हे देवि ! मुखवासिकाभिराशिकाभिः सुवासनाभिरिति यावत्, कन्दगुणं कन्दानां पृथिवीतलस्य पदार्थानां गुणं लब्ध्वा मदनेकधुरा किलोन्मत्तताकरणकारणेनान्यजनाय मोहंकरी बुद्धिभ्रंशकारिणी सुरा मदिरेवासि त्वं । यद्वा मुकुन्दगुणं श्रीकृष्णसदृशमेनं लब्ध्वा मदनेकधुरा मदनस्य नाम प्रद्युम्नस्यैवैकस्य धुरा जन्मदात्री अन्यजनाय माया लक्ष्म्या ऊहं वितकं करोति सम्पादयतीति मोहंकरी त्वं मुखवासिका ८२९ अर्थ - हे सुलोचना देवि ! तुम वासुरा-रात्रिके समान हो, क्योंकि जिस प्रकार रात्रि मदनैकधुरा - कामोत्पादक क्रियाओंसे सहित होती है, उसी प्रकार तुम भी नायक - पति के हृदयमें कामोत्पादन करनेवाली हाव-भाव-विलास आदि क्रियाओंसे सहित हो। जिस प्रकार रात्रि, सेवितसुखा - विश्राम जन्य सुखको देनेवाली होती है, उसी प्रकार तुम भी सेवितसुखा-रति सुखका सेवन करनेवाली हो। जिस प्रकार रात्रि मुखवासिताभिः - मुकारके अभावसे सहित वासिता - अनुभूत आशिकाओ - सुखकारी संपदाओंसे सहित होती है, उसी प्रकार तुम भी मुखवासिता - गुरुजनों के मुखमें वास करनेवाली अर्थात् उनके मुखसे उच्चरित होनेवाली आशिकाओं - आशीर्वादोंसे सहित हो। जिस प्रकार रात्रि कन्दानुसारिणी अर्थात् दिनका अनुगमन करने वाली है, उसी प्रकार तुम भी दगुण - दाताके गुणोंसे सहित अमुकं - इस जयकुमारको पाकर उसका अनुगमन करने वाली हो और जिस प्रकार रात्रि अन्यजन - सर्वसाधारण जनोंके लिये मोहंकरी - निद्रारूप मूर्च्छाको उत्पन्न करने वाली है, उसी प्रकार तुम भो अन्यजन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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