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________________ अष्टादशः सर्ग: ८२७ मुन्नतिपरिणामं गच्छति, एवं च विभिः पक्षिभिः कृतमुक्तिमानं कलकलरवस्तस्मात विकृतोक्ते विकारपरिणतेर्मानाद्दर्शनात् भावनानामनित्याशरणेत्याविद्वावशानुप्रेक्षाणां जिनागमोक्तानामाचे पदे तावदनित्यवचनेऽर्थवति समर्थक सञ्जाते सति ॥ ८॥ सत्यार्थतां व्रजति चैव नभःस्वरूपे भृङ्गे सतीह मधुसूदननामभूते । अम्भोरुहि स्फुरणतः स्विवहीनधुर्ये ___श्रीकौस्तुभाकृतिमिते स्वयमेव सूर्ये ॥९॥ सत्यार्थतामित्यादि-इह प्रातर्वेलायां नभसो गगनस्य स्वरूपं समाकृतिस्तस्मिन् सत्यार्थतामन्वर्थतामेव, न विद्यते भानां नक्षत्राणां स्वरूपं यस्मिन्निति व्युत्पत्त्या व्रजति प्राप्नुवति सति, भृङ्गे मधुपे मधुसूदन इति नाम यस्य तथाभूतश्चासौ भूपो नपश्च तस्मिन् कृष्णनामधेये सति पक्षे मधु कमलरसं सूदयति मधुसूदनस्तथाभूते सति प्रफुल्लपयोजमधुपानतत्परे सति, स्विदय वा अम्भोरहि कमले स्फुरणतो विकासात् अहीनधुर्ये उत्कटशोभासम्पन्ने सति, किञ्च सूर्ये बालदिनकरे श्रीकौस्तुभस्य शोभासम्पन्नमणिविशेषस्याकृतिम् इते गते सति । प्रातःसमये गगने नक्षत्राणि विलीयन्ते भ्रमरा दीन हो गया-प्रभाहीन हो गया ( पक्ष में निर्धन हो गया ) तथा सूर्य शीघ्र ही अभ्युदय-उदय ( पक्षमें सम्पन्नता ) को प्राप्त हो गया, तब पक्षी अपनी कलकल ध्वनिसे आगमोक्त बारह अनुप्रेक्षाओंमेंसे प्रथम अनित्यानुप्रेक्षा को सार्थक कर रहे थे। भावार्थ--'राजा-चन्द्रमा रूपी एक राजाका अस्त होना और इन-सूर्य रूपी अन्य राजाका उदित होना । इससे संसारकी अनित्यताको पक्षी अपनी कलकल ध्वनि से प्रकट कर रहे हैं, यह उत्प्रेक्षा की गई है ॥ ८॥ ___ अर्थ-जब नभःस्वरूप-आकाश का स्वरूप भ-नक्षत्रों के विलीन होनेसे ( न विद्यते भानां नक्षणाणां स्वरूपं यत्र ) इस व्युत्पत्ति के कारण सत्यार्थतासार्थकताको ही प्राप्त हो रहा था। जब भ्रमर मधुसूदन-मधु नामक दैत्य को नष्ट करने के कारण मधुसूदन-कृष्ण नामक राजा हो रहा था (पक्ष में विकसित कमल पुष्पसे मधु-पुष्प रसको ग्रहण कर रहा था)। जब कमल प्रफुल्लित होने से अत्यधिक शोभा युक्त हो रहा था और जब प्राचो दिशा से उदित होने १ 'राजा प्रभो नृपे चन्द्रे यक्षे क्षत्रियशक्रयोः' इति विश्वः । २ इनः पत्यो नपे 'सूर्ये' इति विश्वलोचनः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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