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________________ ८२१ जयोदय-महाकाव्यम् [७-८ हर्षव्यापारः पर्याप्ति समाप्ति इच्छति वाञ्छति सति, वारिजाते कमले सस्पन्दभावं संस्फुरतामधिगच्छति प्राप्नुवति सति, सर्वत्र भूतले नभस्तलेऽपि च कीर्णः प्रक्षिप्तो मकरन्दो विद्यते यस्य तस्मिन् वाते पवने वाति वहति सति ॥६॥ सम्पूर्णरात्रमुचितां रतिनामलीलां _तां रागिणामविरतप्रतियोगशीलाम् । दीपेऽभिवीक्ष्य बहुकौतुकतोऽधुना बा संघूर्णमानशिरसीह सनिद्रभावात् ।।७।। सम्पूर्णेत्यादि-सम्पूर्णरात्रं सायमारभ्य प्रभातपर्यन्तम्, अविरतो निरन्तरसम्भूतो योऽसौ प्रतियोग. क्रमपरिणामस्तच्छीलामुचितां योग्यतामापन्नां रागिणां परस्परमनुरागवतां मिथुनानामिति यावत् तां प्रसिद्धा रतिनामलीलां बहुकौतुकतोऽभिवीक्ष्याधुना वा पुनरिह तस्मिन् दोपे सनिद्रभावादेव निद्रापन्नपरिणामात्किल संघूर्णमानशिरसि संजाते । प्रभातसमये विनाशसन्मुखत्वाद्दीपकस्य घूर्णमानत्वं सहजं निद्रायुक्तस्य च शिरो घूर्णत एवेति ॥७॥ व्योम्नि स्थिति भरुचितां समतीत्य दीने राज्ञोऽपवर्तनवशा प्रतिपद्य हीने । सद्योऽथवाभ्युदयमेतरि भावनाना. माद्येऽर्थवत्यपि पदे विकृतोक्तिमानात् ॥८॥ व्योम्नीत्यादि-अथवेत्युक्तिपरिवर्तने। व्योम्नि गगने राज्ञश्चन्द्रमसो नृपते चाऽपवर्तनमस्तोन्मुखत्वं कुत्सितप्रवर्तनं वा प्रतिपद्य लब्ध्वा भेभ्यो नक्षत्रेभ्यो रुचितामुत भरुभिः सुवर्णश्चितां स्थिति धनाढ्यतां समतीत्य दीने जाते। इने सूर्ये सद्य एवाभ्युदयमेतरि अमनं गच्छति सति, होति निश्चयार्थ। तथा हीनेऽवनतकशापन्नेऽपि पुरुषेऽभ्युदयमन्दताको प्राप्त हो रहा था, जब चकोर पक्षियोंके द्वारा किया हुआ नृत्यादि हर्ष व्यापार समाप्त होना चाहता था, जब कमल विकासोन्मुख था, जब सर्वत्र मकरन्द-परागको बिखेरने वाली वायु बह रही थी, और जब दीपक संपूर्ण रात्रिमें निरन्तर होने वाली रागी जनोंकी योग्य रतिलीलाको कौतुक वश देखकर निद्रासे ही मानों अपने शिरको हिला रहा था ।।५-७॥ ____अर्थ-जब आकाश राजा-चन्द्रमा ( पक्ष में नृपति ) की अपवर्तन दशाअस्तोन्मुख अवस्था ( पक्षमें कुत्सित शासन प्रवृत्ति ) को प्राप्तकर भरुचितांनक्षत्रोंसे देदीप्यमानता ( पक्ष में भरु-चिन्तां-सुवर्ण सम्पन्नता ) को छोड़कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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