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जयोदय-महाकाव्यम् गृहस्थराज इव भद्रं पुण्यपरिणाम विकसनमिते प्राप्ते, सर्वत्र किलामलताया निर्मलपरिणतेरथ चामरताया देवभावस्य प्रसारे सति, इदानीमद्य स्वतोऽनायासेनैव स्वः स्वर्ग भवितुं जगतो महितलस्याधिकारे सति ॥२॥
सूक्ति प्रकुर्वति शकुन्तगणेऽर्हतोव
युक्ति प्रगच्छति च कोकयुगे सतीव । मुक्ति समिच्छति यतीन्द्रवदन्जबन्धे
भुक्ति गते सगुणवद्रजनीप्रबन्धे ॥३।। सूक्तिमित्यादि-अर्हति जिनदेव इव शकुन्तगणे पक्षिसमूहे सूक्ति सन्मार्गप्रहपणामुत कलफलप्रायामुक्ति प्रकुर्वति सति, सज्जन इव कोकयुगे चक्रवाकमिथुने युक्ति बुद्धिविशदतामुत परस्परसंयोगवृत्ति प्रगच्छति सति, यतीन्द्रवद् योगिराज इवाब्जबन्ध कुड्मजरूपे मुक्ति संसारातीतावस्थामुत स्फुरणदशा समिच्छति सति, सगुणः पुण्यात्मा पुरुषस्तद्वत् रजनीप्रबन्धे निशासत्त्वे भुक्ति समाप्तिमवाप्ते पक्षे भोजनभाजनाविसम्पत्तिमधिगच्छति सति ॥३॥ लुप्तोरुरत्ननिचये वियतीव ताते चन्द्रे तु निष्करदशामधुना प्रयाते। घकेऽपकर्मनयने तमेव जाते मन्दं चरत्यभिगमाय किलेति वाते ।।४।।
लुप्तोरुरत्नेत्यावि-सर्वेषामाश्रमदानत्वात् तात इव जनकस्थानीये वियत्याकाशेऽधुना लुप्तोरुरत्ननिचये संजाते लुप्तः समाप्तिमित उडूनामेव रत्नानां निचयोऽथवा
भद्र-विकास (पक्षमें शुभपरिणाम) को प्राप्त हो रहा था। जब पृथिवीतलको स्वर्ग बननेका अधिकार प्राप्त हो रहा था और जब सर्वत्र अमलता-निर्मलता (पक्षमें र-ल का अभेद होनेसे अमरता-देवभाव) का प्रसार हो रहा था ॥२॥ ___ अर्थ-जब पक्षियोंका समूह अर्हन्तके समान सूक्ति-मनोहर कलकल (पक्षमें सन्मार्गकी प्ररूपणापरक सुभाषित को कर रहा था, जब चकवा-चकवोका युगल सज्जन पुरुषके समान युक्ति--परस्परंसंयोग (पक्षमें बुद्धिकी विशदता) को प्राप्त हो रहा था, जब अब्जबन्ध-कमलकुड्मल योगिराजके समान मुक्ति-विकास (पक्षमें संसारातीत अवस्था) को प्राप्त हो रहा था और जब रात्रिका सत्त्वपुण्यशाली मनुष्यके समान भुक्ति-समाप्ति (पक्षमें भोजनभाजनादिरूप सम्पत्ति) को प्राप्त हो रहा था ॥३॥
अर्थ-प्रातःकालके समय वायु मन्द मन्द--धीरे धीरे चल रही थी। क्यों? इसके लिये कविकी उत्प्रेक्षा यह है । कि सबके लिये आश्रय देनेसे पिताके तुल्य जो
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