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________________ अष्टादशः सर्गः श्रीयुक्तपाठक ! शृणूत विनोदकृत्ते सिद्धि गतेऽर्हत इव द्वितयस्य वृत्ते । ऋद्धि यतीन्द्रवदुपेतरि सूर्यकान्ते वृद्धि समर्णवदिते तमसि क्षपान्ते ॥१॥ श्रीयुक्तेत्यादि-श्रीयुक्तपाठक ! हे वाचक-महाशय ! ते विनोदकृत् हर्षकारकयताथवा वृत्तान्तं शृणु । यत्तावत् किलाहतो जिनस्य वृत्तेऽनशनाद्याचरण इव द्वितयस्य स्त्रीपुरुषयोमिथुनस्यापि वृत्त मैथुने सिद्धि मुक्तिमुतावसानपरिणति गते सति सूर्यकान्ते नाम मणौ च यतीन्द्रवदृषिवर इव ऋद्धिमुपेतरि लभमाने यया मुनीन्द्रऋद्धिमुपेत्य स्व. चेष्टिते चमत्कुरुते तथा सूर्यकान्तमणिरप्यधुना कस्मावह्नि प्रकटयतीति भावः । तमसि अन्धकारे पुनः समर्णवत् सम्यगृणे यथा तथा वृद्धि नामाधिकपरिणतिमिते प्राप्ते इदानों अपान्ते प्रातःकाले चन्द्रमसः प्रकाशाभावे सूर्ये चानभ्युदितेऽधुनान्धकारर्वृद्धिर्भवतीति ॥१॥ स्वस्तिक्रियामतति विप्रवदर्कचारे भद्रं सुगहिवदिते कमलप्रकारे । स्वस्तु स्वतोऽद्य भवितुं जगतोऽधिकारे सर्वत्र भाविनि किलामलताप्रसारे ॥२॥ स्वस्तीत्यादि-अकंचारे सूर्यस्योदये विप्रवत् स्वस्तिक्रियामतति, ब्राह्मणो यथा स्वस्तिवाचनं करोति तथा शोभनामस्तिक्रियां गच्छति सति, कमलप्रकारे च सुगहिवत् अर्थ-हे श्रीयुक्त वाचक महाशय ! आगामी वृत्तान्त सुनो जो आपके हर्षका कारण है। जिस प्रकार अर्हन्तदेवका अनशनादि आचार सिद्धि-सफलताको प्राप्त होता है उसी प्रकार रात्रिके अन्तमें अर्थात् प्रातःकालके समय जब दम्पतीका समागमरूप कार्यसिद्धि–समाप्तिको प्राप्त हो गया था। मुनिराजके समान जब सूर्यकान्त मणि ऋद्धि--दीप्तिको प्राप्त हो रहा था और अन्धकार जब ऋणके समान वृद्धिको प्राप्त हो रहा था ॥१॥ अर्थ-जब सूर्योदय ब्राह्मणके समान स्वस्तिक्रिया-शोभनक्रिया (पक्ष में स्वस्तिपाठ) को प्राप्त हो रहा था, जब कमलोंका समूह सद्गृहस्थके समान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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