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________________ ७८६ जयोदय-महाकाव्यम् [ ८३-८४ व्याजेन पत्रोपलक्षितवल्लीछलेन भूर्जप्रायकपोलके भूर्जपत्रतुल्यगण्डप्रदेशे बीजाक्षरा मन्त्रा इव लिखिताः । कपोलयोरन्ते कुण्डलसम्बदौ कुण्डलकारौ युक्तौ मिलितौ ठकाराविव मंत्रशास्त्र प्रयुक्तौ ठकारौ -- ठकारौ वर्णो विलसतस्तराम् अतिशयेन शुशुभाते । नाभिरेवं कुण्डं यज्ञ कुण्डं परितो विभ्राजमाना लोमाली रोमपङ्क्तिः श्रीधूपधूमावलीश्रीधूपस्य धूमावली धूमपङ्क्तिरिव शुशुभे वध्वा मध्यभागे स्थिता गुणवती गुणकारिणी पक्षे गुणोत्पादिका हेमसूत्रावली स्त्रर्णमेखला जपमालिका जापमालेव सज्जीयात् समीचीनतया शुशुभे यथा कश्चिन्मन्त्रसाधको भूर्जपत्र ठकारयुक्तान् बीजाक्षरान् विन्यस्य यज्ञकुण्डे हवनंकरोति तस्य धूपः परितः प्रसर्पति पावें जपमालिकां च समादत्त तथा कामः कुरुते इति भावः ॥ ८२ ॥ मायात्रयपरिवेष्टिता त्रिवलिमिषेण तनूदरी । भात्येषा सा स्मरभूपतेः स्तम्भनविद्या सुन्दरी ॥८३॥ टीका---त्रिवलयो नाभेरधस्ताद्विद्यमाना रेखाविशेषास्तासां मिषेण व्याजेन माया त्रयेण परिवेष्टिता सहिता तनूदरी कृशोदरी एषा सुन्दरो नायिका स्मरभूपतेर्मदनमहीपस्य स्तम्भनविद्येव भाति शोभते ॥ ८३ ॥ सुन्दरीः सद्यः सुन्दरैः कलयितुमनुष्णरुचोऽनुसम् । मधुरकला लिरिवोज्ज्वलप्रतिभा बभावाप्तक्षया || ८४|| टीका - आप्तः प्राप्तः क्षेयो निवासो यया तथाभूता, अनुष्णा शीतला रुक् कान्ति 1 था वह ऐसा जान पड़ता था मानों भूर्जपत्रपर मन्त्रके बीजाक्षर लिखे गये हों कपोलोंके दोनों ओर कुण्डल ऐसे जान पड़ते थे मानों मन्त्रमें प्रयुक्त होनेवाले ' ठः ठः' नामक बीजाक्षर हों । नाभिके पास जो काली काली रोमावली थी वह ऐसी लगती थी मानों नाभि रूपी यज्ञ कुण्डसे धूमको पङ्क्ति उठ रही हो और मध्यभाग में स्थित सुवर्ण मेखला ऐसी जान पड़ती थी मानों मन्त्र साधकके उपयोग में आनेवाली जपकी माला - स्मरणी ही हो ||८२ ॥ Jain Education International अर्थ - जो त्रिवलियोंके बहाने मानसिक, वाचनिक और कायिक. इन तीन प्रकारकी मायाओंसे वेष्टित था ऐसी कोई कृशोदरी स्त्री काममहीपाल की स्तम्भन विद्या के समान सुशोभित हो रही थी ॥ ८३ ॥ अर्थ – घरपर चमकती हुई चन्द्रमाकी मनोहर कला स्त्रियोंको पतियोंके १. क्षयोपचयकल्पान्तनिवासेषु रुगन्तरे इति विश्वलोचनः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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