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________________ ७८४ जयोदय-महाकाव्यम् t ७९-८० हृदि वाचि कपोलयो शोर्वा निखिलेष्वेव विचेष्टितेष्वपि । अनुरागमिवानुभावयन्ती प्रथितार्थाऽजनि रेञ्जनी जनी ॥ ७९ ॥ टीका — हृवि हृदये वाचि विचेष्टितेषु चेष्टाविशेषेषु अनुरागं सावदीनात्युदारासौ) रञ्जनी जनीनां प्रथितार्याऽजनि संजाता ।। ७९ ।। वृगियं श्रुतिलङ्घनोत्सुकाऽऽराभ्रकुटीस्मार्तं सुधर्म कीर्तिलोप्त्री । न पुराणपथाश्रिता विलासाः सुरताङ्कोऽयमनीतिरेव तासाम् ॥८०॥ टीका - तासां स्त्रीणामियं वृग् दृष्टिः श्रतेः श्रवणस्य लङ्घनं प्रत्याक्रमणं तस्मायुत्सुकाऽस्त्याराच्छीघ्रमेव । तथैवेयं भ्रकुटी अवोद्वितयी सा स्मृते रागतोऽसौ स्मार्तो मदनस्तस्य सुधर्मश्चापदण्डस्तस्य कीर्तिः प्रशंसा तस्या लोप्त्री लोपकर्त्री ततोऽपि शोभनतरा । विलासाश्च पुराणं पन्थानं श्रयन्तीति पुराणपथाश्रितास्तादृशा न भवन्ति, नवा नवाः संभवन्ति । एवं कृत्वा सुरतस्याङ्को लक्षणं अनीतिरीतिर्वाजतः स्पष्ट एवाभूत् । किञ्च श्रतिरध्यात्मशास्त्र तस्योल्लङ्घनकर्त्री दृष्टिः । स्मार्तधर्मः स्मृतिप्रतिपावितः सदाचारस्तस्य कीर्तिलोपत्री भ्रकुटी, त्रिषष्टिपुरुषचरितप्रतिपादकानि प्रथमानुयोगलक्षणानि पुराणनामशास्त्राणि तेषां पन्थास्तवनाश्रया विलासाः । एवं सुरताकोऽमीतिनतिर्वाजतो यवृच्छावावपूर्णोऽभूदिति ॥ ८० ॥ वचने कपोलयो गं ल्लदेशयो दृशोर्नयनयोनिलिलेब्वेव प्रीतिभावमिव प्रियजनायानुभावयन्ती ( न बीनामानुषीणां मध्ये प्रथितः सत्यार्थतां नीतो यया सा अर्थ - हृदय में, वचनमें, गालों में, नेत्रोंमें और समस्त चेष्टाओंमें अनुरागप्रेम ( पक्ष में लालिमा ) को प्रकट करने वाली रञ्जनी-मदिरा और जनी - स्त्री सार्थक नाम वाली हुई थी । भावार्थ -- जिस प्रकार स्त्री हृदयमें वाणीमें, कपोलोंमें, आंखोंमें और हावभाव रूपी सभी चेष्टाओंमें अनुराम-प्रेम प्रकट करती है उसी प्रकार रञ्जनीमदिरा भी उपर्युक्त स्थानोंमें अनुराग - लालिमा को प्रकट करती हुई अपने 'रञ्जनी' इस नामको सार्थक करती थी ॥ ७९ ॥ अर्थ - उस समय उन स्त्रियोंकी दृष्टि श्रुतिलङ्घनोत्सुका - अध्यात्मशास्त्रों का उल्लङ्घन करनेके लिये उत्सुक थी ( पक्ष में लम्बाई के कारण श्रुति-कानों का उल्लङ्घन करनेके लिये उत्कण्ठित थी ) भ्रकुटी स्मार्त - सुधर्मकीर्तिलोत्रीस्मृतियोंमें प्रतिपादित सदाचार रूप धर्म की कीर्ति का लोप करने वाली थी ( पक्ष में स्मार्त - स्मृति मात्रसे उपस्थित होने वाले कामदेव के सुधर्म-उत्तम धनुष १. 'रञ्जनी नीलिका गुण्डा मञ्जिष्ठा रोचनीष्वषि' इति विश्व ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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