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________________ ७६-७७-७८] षोडशः सर्गः ७८३ प्रेयसी प्रियतमस्य पार्वतःश्चन्द्रकान्तमृदुपुत्रिकां स्वतः । संस्फुरत्तरवारिकां हि का सङ्गतामकथयत्सपत्निकाम् ॥७६॥ टीका-सुगमम् ॥७॥ यूनि रागतरलैरपि तिर्यपातिभिर्मदमतिष्ववतीर्य । दूरदर्शिभिरलङ्घि न बालालोचनैः श्रुतिरहो सुविशाला ॥७७॥ ___टीका-यूनि स्वप्रिये तरुणे रागेण प्रेम्णा तरलैश्चञ्चलैस्तथा मदमतिषु सुरापानेष्ववतीर्य प्रवर्त्य तिर्यक् पतन्तीति तिर्यपातिनस्तैरपि तथापि दूरदर्शिभिर्दीर्घालोचकै बलितया लोचनैर्नयनैविशाला सुविस्तृता श्रुतिः श्रोत्र शास्त्र वा नालङ्घि नोल्लङ्घिता । अहो हति विस्मयो मदिभिः श्रुतलङ्घनस्यावश्यंभावित्वात् ॥७७॥ मधुनामधुना कृतं यत्पुना रसवत्प्रत्ययमेत्य चाधुना। मधुरसङ्गमं सम्बवीम्यहं मिथुनजनायोत्तमसुखावहम् ॥७८॥ टीका-मधुनाम्नैव धुना धातुना कृतं संपादितं किंवा कृत्संज्ञकं रसवत्प्रत्ययमेत्य यद्वा सरसबोधमेत्य लब्ध्वाऽधुना साम्प्रतं पुनर्मिथुनजनाय स्त्रीपुयोगयुक्ताय लोकायोत्तम सुखमावहतीति तं मधरश्चासौ सङ्गमश्च तमहं सम्ब्रवीमि ॥७८॥ जान पड़तो थी मानों सखीके लिये प्रशंसनीय मोतियोंका उपहार–पारितोषिक ही दे रही हो ॥७५॥ ___ अर्थ-प्रियतमके सन्निधानसे जिसके शरीरमें सात्त्विकभावके कारण स्वेद जल कण छलक रहे हैं ऐसी किसी स्त्रीने अपने आपको चन्द्रकान्त मणिकी पुतली जैसा प्रकट किया था और सपत्नी के प्रति अपने आपको ऐसा प्रकट किया था जैसे चञ्चल तलवारको धारण कर रही हो ॥७६॥ ___अर्थ-युवा पतिविषयक प्रेमके कारण चञ्चल तथा तिरछे पड़ने वाले किसी स्त्रीके दीर्घदशी नेत्रोंने सुरापानमें अवतोर्ण होकर भी आश्चर्य है कि श्रुति--कानों (पक्षमें शास्त्र) का उल्लङ्घन नहीं किया था ।।७७॥ अर्थ-कवि कहते हैं कि मैं इस समय सरस ज्ञानको प्राप्तकर स्त्री-पुरुषोंके लिये उत्तम सुखदायक उस मधुर सङ्गमका वर्णन करता हूँ जो मधु नामक धातुसे कृत-विहित है (मदिरा पानसे संपादित है) ॥७८॥ १. 'तरलश्चञ्चले खड्गे' इति विश्वलोचनः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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