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________________ ७८२ जयोदय-महाकाव्यम् श्रीमत्तमालशकलभ्रु ! विमुञ्च जालं स्वच्छन्दबोधमधुना निगदामि मोलम् । आशासितेति वदनोदलवैश्च शस्यै मुक्ताफलानि तु ददावुपहारमस्यै ॥७५॥ टीका - उपर्युक्तप्रकारेण नायिकासख्योः परस्परं सम्भाषमाणयोः सत्योः सहसेवागतं नायकं दृष्ट्वा सखी नायिकामनालोकितपतिकां प्रतिजगाद शब्दच्छलेन यत्किल हे श्रीमतमालशकलभ्रु ! श्रीमतस्तमालस्य शकलं खण्डमिव भ्रुवौ यस्यास्तत्सम्बुद्धिः जाल प्रपञ्चं छलं वा विमुञ्च जहि । अधुना साम्प्रतं तव शब्दस्य बोधः परिज्ञानं यस्य तं माल जनं तव स्वामिनमित्यर्थो निगदामि अहम्, अस्माकं परस्परसम्भाषणं तव स्वामिना श्रुतमिति संसूचयित्री सखी तस्था व्याकरणज्ञानं च प्रशंसति यत्ते शब्दबोधं मालं मां श्रियं प्रशंसां वा लाति गृह्णातीति तं निगदामि तावदित्येवं प्रकारेण शासिता सम्बोधिता सती सा नायिकाfप साश्चर्य चकिततथा वदने सञ्जाताया ये उदलवा जलांशास्तैः शस्यैः प्रशंसनीरनल्पैरित्यर्थोऽस्थं वयस्यायें मुक्ताफलानि नामोपहारं पारितोषिकं ददौ । श्लेघो मीलनं चालंकारोऽत्र ॥ ७५ ॥ [ ७५ शब्द भी तो शस् प्रत्ययसे लेकर अति सखि शब्दके समान है यह क्या तुम नहीं जानती ? भावार्थ — व्याकरणमें शस् प्रत्यय - द्वितीयाके बहुवचनसे लेकर पति और सखि शब्द के रूप एक समान चलते हैं और उपपति तथा अतिसखि शब्दके रूप भी द्वितीया के बहुवचनसे लेकर आगे एक समान चलते हैं ? इसलिये पति, उपपति, सखि और अतिसखि शब्दके श्लेषसे दो सखियोंकी उक्ति प्रत्युक्ति है ॥७४॥ Jain Education International अर्थ- जब नायिका और सखीके बीच पूर्वोक्त प्रकारका सभाषण चल रहा था तब अकस्मात् नायिकाका पति आ गया परन्तु नायिकाने उसे देखा नहीं । सखी, नायिकासे कहती है कि हे शोभायमान तमाल पत्रके खण्ड समान भौंहों वाली ! जाल - व्यर्थंका वाग्विस्तार अथवा छल छोड़ो। तुम्हारे पति हम दोनोंके संवादको सुन चुके हैं । अब मैं उनसे तुम्हारे शब्दबोध - व्याकरण ज्ञकी बात कहती हूँ अर्थात् उन्हें बतलाती हूँ कि तुम्हारी प्रिया व्याकरणके ज्ञानमें बहुत दक्ष है । जब सखीने नायिकासे ऐसा कहा तब उसके मुखपर आश्चर्य चकित होनेके कारण स्वेद जलके कण छलक आये। उनसे वह ऐसी १. 'मालं क्षेत्रे जने मालो' इति विश्वलोचनः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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