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६९-७०-७१ ]
षोडशः सर्गः समागमे सूर्यकान्तः प्रज्वलति तथा तव दर्शने ममापि कोपसमुद्भतिः। श्लेषः भ्रमश्चालंकारः ॥६८॥
तव निघृण किमिहार्थों याहि ययैवानुरज्यसेऽपार्थः । माऽपहर कुचनन्थि किमपासता तेऽस्ति हृद्ग्रन्थिः ॥६९॥ टोका-हे निघृण । लज्जाहीन ! तवेहापि अर्थ प्रयोजनं विद्यते किं ? किन्तु न हि किमपि कार्य ते । ययैव सहानुरज्यसे यस्यां तेऽनुरागो विद्यते तत्र याहि यतस्त्वमपार्थों दुरभिप्रायोऽसि । मम कुचन्थि कञ्चुक बन्धनं मापहर नच्छिन्धि । ते तव हो हृदयस्य प्रन्थिर्मायावित्वं सापास्ता निष्कासितास्ति किं ? किन्तु नापहृता । वक्रोक्तिः ॥६९॥
उक्तप्रकारेण प्रतारितः प्राणपतिर्यदा विनिर्गतस्तदा पुनर्वियुक्ता विलपति
मानिन्यसहेति मुहुधिक्कृतिरपि कल्पिता मयीह बहुः । कितवगुणाननुववता हे जिन ! सवयोजनेन सता ॥७॥ क्रीडाकोपात्कथमपि गच्छेति मयोविते कठिनहृदयः । त्यक्त्वा तल्पमनल्पं गतवान् सखि पश्यताददयः ॥७१।। टीका -- सुस्पष्टार्थमेतवृत्तद्वयमस्ति ।
सूर्यके देखनेसे जिस प्रकार सूर्यकान्त मणि प्रज्वलित हो जाता है उसी प्रकार आपको देख कर मेरा क्रोध प्रज्वलित हो रहा है ॥६८॥ __ अर्थ-हे निर्लज्ज ! अथवा हे निर्दय ! तुम्हें यहाँ क्या प्रयोजन है ? तुम्हारा अभिप्राय अच्छा नहीं है जो तुम्हारे साथ अनुराग रखती है वहीं जाओ। मेरे कुचवस्त्रको गांठ मत खोलो। क्या तुम्हारे हृदयकी गांठ-माया प्रवृत्ति दूर हो गई है ? ॥६९॥
अर्थ-हे भगवन् । उस धूर्तके गुणोंका बार बार कथन करने वाले समीचीन मित्रजनोंने 'तुम बड़ी अभिमानिनी हो तुम बड़ी असहनशील हो' इस तरहके धिक्कार-कुवचन मेरे विषयमें बार-बार कहे है पर मैं सब सहती गई परन्तु मैंने प्रणयकोपसे किसी तरह कह दिया कि 'जाओ-चले जाओ' इतने मात्रसे वह कठोर हृदय विशाल शय्याको छोड़कर चला गया। हे सखि ! देखो, कितना निर्दय है ? ||७०-११॥
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