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५५-६० ]
षोडशः सर्गः
सागसि रसिके रुष्टा तुष्टा न पदाब्जयोरपि च जुष्टा । मद्यविलुप्तविवेका तथैव तमतोषयविहेका ।। ५५ ।। प्रिय संगमनिजितरुषि शमितविधादे प्रसन्नया धनुषि । नेषु रतिहृदयेशः श्रितसन्धा यौवते' प्रविदधे सः ॥५६॥ इत्येवमभिनिवेशे स्मरशर सम्बिद्ध सकलभूदेशे । नक्तं व्रजति विशेषे संहतिलिप्सौ नरि अशेषे ॥५७॥ एका सखी विवेकाञ्चितचित्ता सानुकूलमपि चकितां । उपदिशति स्म नवोढां प्रोढा वोढारमननुगताम् ॥५८॥ राजीवमधुर मयने नयने अयने निमीलिते कस्मात् । जितदर्पकमपि दर्पक वशगं प्रियमोक्षतां स्वस्मात् ||५९| यदि कुपितासि सुभाषिणि करजक्षतपूर्वकं मवनशासिनि । भुजपाशेन दृढन्तं वधान निगलेऽत्र विलसन्तम् ॥६०॥
टीका- एते श्लोका नाति क्लिष्टा अतो न व्याख्याताः ॥ ५३-६०॥
अर्थ - तदनन्तर मदिराके नशासे जो अर्धोन्मीलित नेत्रोंको धारण कर रही तथा जिसका मुख नीचेकी ओर था ऐसी किसी स्त्रीने धीरे-धीरे लज्जाको दूर कर शीघ्र ही पतिका मुख देखा || ५३|| हावभावोंको पुष्ट करनेवाले स्त्रियोंके शरीर नशासे झूमने लगे और उन्नत स्तनोंके द्वारा दोनों ओर घात प्रतिघात करने लगे ||५४|| जो अपने अपराधी पति पर कुपित थी और उसके चरणानत होनेपर भी प्रसन्न नहीं हो रही थी ऐसी किसी एक स्त्रीने मदिरासे विवेकके लुप्त हो जाने पर उस समय पतिको संतुष्ट किया था ॥ ५५ ॥ पति समागमसे जब स्त्री समूहका क्रोध शान्त हो गया, परस्परका विवाद दूर हो गया और दोनों
सन्धि हो गई तब कामदेवने धनुष पर बाण नहीं चढ़ाया ॥ ५६ ॥ इस संदर्भ में जब समस्त पृथिवी प्रदेश कामबाणोंसे बिद्ध हो रहा था और मिलनके इच्छुक मनुष्य जब रात्रिके समय यथास्थान जा रहे थे तब एक विवेकशालिनी प्रौढा सखीने नवोढा स्त्रीको इस प्रकार समझाया था - हे कमल नयने ! तुमने मार्ग में ही नेत्र क्यों बन्द कर रक्खे हैं ? अहंकारके विजेता, कामाकुलित वल्लभको देखा । हे मधुरभाषिणी ! यदि तुम कुपित हो तो कामदेवके आज्ञाकारी सुन्दर १. युवतीनां समूहो योक्तं तस्मिन् ।
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