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________________ ७७३ ४९-५० ] षोडशः सर्गः स्वाद्यां चरान्तां सुमनोहरां तां मुहर्महुः सत्तमसा क्षितान्तां । तथाविधामेव सुधाम पूर्वा स्थित्यर्थमन्तहृदयं वधुर्वा ॥४९॥ टीका-मिथुनजनाः कर्तारः स्वायां स्वादनीयां चरस्तरलोऽन्तः स्वभावो यस्यास्तां तुमनः पवित्रमन्तःकरणं हरतीति सुमनोहरा मोहक! तत एव सता तमसा तिमिरेणाविन नयने ताप्ता व्याप्तिकर्ती तथाविषामुक्तलक्षणामपूर्वामप्राक्तनां प्रागननुभूतां तां सुधामिव मन्यमानाः स्थित्ययं स्तम्मनकार्यार्थ हृदयस्यान्तमध्येऽन्ताहृदयं वपुः। मुहुर्मुहुर्वारंवार यथा स्यात्तथा धारयामासुः। वीऽथया सुकार आधः प्रथमस्थो वर्णों यस्यास्तां स्वाद्यांच पुना रकारोऽन्ते यस्यास्तां रान्तां सुरामित्यर्थः । सत्तमः सज्जनोत्तमः प्रियजन इति यावत् । स साक्षी समक्षे वर्तमानस्तेन तान्तां समाक्रान्तां सुमनोभ्यो हरणीयां मधूककुसुमसमुत्थां तामेतां विगतो धाकारो यस्यास्तां विधामेव तथा पुनरकारः पूर्वस्मिन् यस्यास्तामपूर्वा सुधामिति असुप्ताणमेवेति कृत्वा स्थित्ययं जीवनसम्पत्यर्थं मुहुर्मुहुरन्तहवयं वधुः । श्लेषो वक्रोक्तिश्चालंकारः ॥४९॥ ततत्यजेदं भभभाजनं तु दुदुद्रुतं ते मुमुखासवं तु। बध्वा ददेदेहि पिपिप्रियेति मदोक्तिरेषालि मुवे निरेति ॥५०॥ टोका-स्पष्टमिदं वृत्तम् ॥५०॥ उसे कमल समझ कर भ्रमर संघनेके लिये गया सो ठीक ही है क्योंकि लोभी जीवोंको विवेक कहाँ होता है ? ॥४८|| अर्थ-आस्वादनीय, चञ्चलस्वभाव वाली, पवित्र मनको मोह युक्त करने वाली और नेत्रों में तिमिर-नशा रूप मूर्छाको विस्तृत करनेवाली उस सुराको स्त्री पुरुषोंने अपूर्व सुधा-अमृतमान कर स्तम्भनके लिये संभोग सम्बन्धी क्षमता प्राप्त करनेके लिये बार-बार हृदयमें धारण किया था-बार-बार पीकर उदरस्थ किया था। अथवा मो सुनोहरा-महुआ आदि पुष्पोंसे निर्मित थी, तथा जो सत्तम-प्रियजनके साक्षीमें तान्त--विस्तृत थी, ऐसो स्वायां-जिसके आदिमें सुवर्ण है और रान्तां जिसके अन्तमें रवर्ण है ऐसी सुरा--मदिराको स्त्री पुरुषोंने विधा-धासे रहित और अपूर्व अकार सहित-असु-प्राण जैसा मानकर जीवनकी स्थिरताके लिये बार-बार हृदयस्थ किया था। बार-बार पिया था। यहाँ श्लेष और वक्रोक्ति अलंकार है ॥४९॥ अर्थ-मदिराके नशामें किसी स्त्रीको वाणी अस्पष्ट तथा पुनरुक्त हो गई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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