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________________ १८-१९] षोडशः सर्गः कवचापहारकश्च भवन् धन्वं स्थानं धनुर्वापहरतिस्म । त्वं च पुनर्दिव्यशरस्य गलभूषणस्याधिभूः स्थानं यद्वा दिव्यवाणानामधिभूर्यस्मात् कारणात् तु पुनर्मुदे प्रसन्नताथं भूयः पुनरपि कोदण्डं धनुरुवेतु खलु ॥१७॥ नत- तप्तास्यतनुज्वरेण किलोपवासोऽस्तु सुखाय तेन । रसायनाधीट रसमर्पयास्मिन्नालं तवावेदितलङ्घनेऽस्मिन् ॥१८॥ टोका-हे नतभ्र, ! त्वमपि अतनुज्वरेण विशालज्वरेण कामज्वरेण वा तप्तासि किल तेन हेतुना उपवासी लङ्घनं समं निवासः सुखायास्तु भवतु, इति निगदति सति प्रिये कान्तायाः प्रत्युक्तिः । हे रसायनाधीट् । वैद्यराज ! तवोदितलङ्घने तव कथिते उपवासरूपे लङ्घने यद्वा तवावेवितस्याभ्यर्थनारूपस्योल्लङ्घने निषेधने नालमस्मि समर्था न भवामि ततः शीघ्रमेव रसमय । लङ्घनकरणेऽसमर्थायास्तु रोगिण्याः पारदादिरसप्रदानेन चिकित्सा कार्या भवतीति ॥१८॥ सवृत्तसम्वादसमर्थमद्य श्रीचन्द्रकान्तामृतगुं प्रपद्य । नितान्तमन्तःकठिनापि वारिमुक्तामथोरोकुरुते स्म नारी॥१९॥ टीका-योग्येन योग्यसङ्गमरूपं. सद्वृत्तं तस्य सम्बादे समर्थ पति चन्द्रकान्ता (पक्षमें कवच तोड़ डाला है) और मेरा धन्व-देश-स्थान (पक्षमें धनुष) छीन लिया है, अर्थात् में स्थानभ्रष्ट और शस्त्ररहित हो गया हूँ परन्तु, तुम दिव्यशरधिभू-सुन्दर कण्ठहारको भूमि हो (पक्षमें दिव्य-अलौकिक शरों-वाणोंकी अधिनायक हो अतः प्रसन्नताके लिये मुझे फिर भी कोदण्ड–देश विशेष यद्वा धनुष प्राप्त हो । जिससे मैं स्थान भ्रष्ट और शस्त्ररहित न रहूँ ॥१७॥ अर्थ-श्लेष द्वारा नायक नायिका की उक्तिप्रत्युक्ति है। नायक कहता है कि हे नत भौंहों वाली प्रिये ! तुम अतनुज्वर-बहुत भारी बुखार से (पक्षमें काम ज्वर से) संतप्त हो, पीड़ित हो, इसलिये उपवास-लङ्घन करना (पक्षमें साथ ही निवास करना) सुख के लिये हो । नायक के यह कहने पर नायिका कहती है-हे रसायनाधीट् ! रसायन विद्या के सम्राट् ! वैद्यराज ! (पक्षमें रस-अयन-अधीट) शृङ्गार रसके स्वामी प्राणनाथ !) मैं तुम्हारे द्वारा बतलाये हुए इस लंघन रूप उपवासके करनेमें समर्थ नहीं हूँ। पक्षमें आपकी प्रणयप्रार्थनाके उल्लंघन करने में समर्थ नहीं हूँ) इसलिये कोई रस-आयुर्वेदिक रसायन दीजिये (पक्षमें रस-शृङ्गार रस) प्रदान कीजिये जिसके द्वारा मैं अनायास अतनुज्वरसे उन्मुक्त हो जाऊँ ॥१८॥ अर्थ-जिस प्रकार चन्द्रकान्ता-चन्द्रकान्त मणिसे निर्मित पुतली भीतरसे Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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