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________________ ७५८ जयोदय- महाकाव्यम् [ १२-१३ श्यामं मुखं मे विरहैकवस्तु कान्ततो रक्तमहो मनस्तु | प्रत्यागतस्ते ह्यधराग्रभाग एवाभिरूपे मनसस्तु रागः ॥ १२ ॥ टीका - हे प्रिये ! मे मुखं विरहैकत्रस्तु त्वद्वियोगवशवर्तितया श्यामं कृष्णवणं भवति तु पुनर्मनश्च मे एकान्ततो निश्चितरूपतया रक्तमनुरागयुक्तं लोहितं भवति किन्तु ते तव मनसो हृदयस्य रागोऽनुरागोऽसौ हीति निश्चयेनाभिरूपे मनोहरेऽधरस्याग्रभाग एव प्रत्यागतस्तव मनसि तु मम विषये जातुचिदपि नानुरागस्तिष्ठति खलु ॥ १२ ॥ मुहुर्नु बद्धाञ्जलिरेष दासः सदा सखि ! प्रार्थयते सदाशः । कुतः पुनः पूर्णपयोधरा वा न वर्तते सत्करकस्वभावा ॥१३॥ टीका - हे सखि ! एष समक्षे वर्तमानो दासः सदाशः सम्यगाशावान् बद्धाञ्जलिः प्रकृतहस्तयोजनावान् मुहुर्वारंवारं प्रार्थयते । त्वं तु पुनः पूर्णो प्रव्यक्ततां गतौ पयोधरौ स्तनौ यस्या यद्वा पूर्णतया जलधारणस्वभावापि, कलस्तु मधुरो ध्वनिः कल एव कलकः सन् प्रशंसायोग्यः कलक एव स्वभावो यस्याः प्रशस्तमधुरभाषिणी । किञ्च करकं भृङ्गारकं सत् उत्तमं करकमेव स्वभावो यस्याः सा कुतो न भवसीति, जलधारिणी च तृष्णावते जनाय जलं न पाययसीति कथं कदर्यस्वभावता ते नेति सूक्तिः । श्लेषोऽनुप्रासश्चालंकारः ॥१३॥ सूत्र कामरूप निशाचर का निरा करनेवाला मंत्र साधक शास्त्र नहीं प्राप्त करता हूँ तो मुझे अष्टाङ्ग सिद्धि -- अणिमा महिमा आदि अष्ट विध विभूतिकी अथवा तुम्हारे अष्टाङ्ग शरीरकी प्राप्तिसे समता कैसे हो सकती है ? ॥ ११ ॥ अर्थ - - हे प्रिये ! मेरा मुख तो विरहकी एक वस्तु है अर्थात् तुम्हारे विरहके कारण कृष्णवर्ण हो गया है परन्तु मेरा हृदय नियमसे रक्त - रागयुक्त अथवा लाल वर्ण है । आश्चर्य है कि तुम्हारे मनका राग मनोहर अधरोष्ठमें आ गया है। तात्पर्य है कि तुम्हारे मनमें मेरे विषयमें कुछ भी अनुराग प्रेम नहीं है ॥ १२ ॥ 1 अर्थ - हे सखि ! यह सामने खड़ा दास सदासे आशा लगाये बद्धाञ्जलि - हाथ जोड़कर ( पक्ष में पानी पीनेके लिये अंजलि बाँधकर ) प्रार्थना कर रहा है कि मुझे स्वीकृत करो (पक्षमें पानी पिला दो। तुम पूर्णपयोधरा हो – तुम्हारे स्तन पूर्ण विकसित हैं ( पक्ष में तुम जलको धारण करनेवाली हो) फिर भी करकस्वभावा - मधुरभाषिणी नहीं हो रही हो (पक्ष में करकस्वभावा -- करक - जलपात्रके स्वभाववाली नहीं हो रही हो, यह आश्चर्य की बात है ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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