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________________ जयोदय-महाकाव्यम् [७-८ टीका-रात्रिसम्बन्धि तमस्तु एकाकिने विरहिणे जनाय वाष्पाम्बुपूरस्य नेत्रजलप्रवाहस्योदयकारि वस्तु धूमसमं धूमेन समानं भवति । तदेव सती अङ्गना स्त्री यस्य तस्य सुशास्तुर्जनस्य दृशौ एवाम्बुजे तयोरुन्मीलनकृत् सदज्जनवत् सदैवास्तु समस्तु खलु उल्लेखो. ऽलंकारः ॥६॥ सौभाग्यमभीरु जनास्य फुल्लविलोकिने श्रीध्वजवस्त्रपल्लः । हृद्भदकृत्सम्भवतीव भल्लः परत्र यो दीपाशिखांशभल्लः ॥७॥ टोका-दीपशिखांशमल्लः सौभाग्यमृतो भागवतो भीरुजनस्य ललनालोकस्यास्यमेव फुल्लं विलोकयतीति तस्मै जनाय श्रियो ध्वजस्य वस्त्रपल्लः य एव दीपशिखांशमल्लः परत्र ललनास्यावलोकनरहिते जने हृदो हृदयस्य भेवकृत् भल्ल इव भवतीति शेषः । उल्लेख एवालङ्कारः ॥ ७॥ मुद्द्योतनं द्वैतवतो निकाममुद्योतनं चन्द्रमसोऽभिरामम् । वियोगिनः संतमसं तथातियत्नादिवानी मनसि प्रयाति ।।८। टीका-चन्द्रमसोऽभिराम मनोहरमुद्योतनं तसतो मिथुनजनाय निकामं यथेष्टं मुवः प्रसन्नताया द्योतनं प्रकटीकरणं भवति । इदानीमेव तथा सन्तमसं तु वियोगिनो जनस्य मनसि यत्नात्प्रयाति जगतो गत्वा वियोगिहृदय एव तमःसंभूतं भवतीति खलु युक्तम् । उल्लेखालङ्कारः ॥ ८॥ की बात दूर रहे) इस लोकमें भी वस्त्राभूषणोंसे सुशोभित रहते हैं और जो उसकी आज्ञाका उल्लंघन करते हैं वे गुफाओंमें रहते हुए मौनी होते हैं ।।५।। अर्थ-रात्रि सम्बन्धी जो अन्धकार था वह विरही मनुष्यके लिये तो धुएंके समान अश्रु जलके प्रवाहको करने वाला पदार्थ था और स्त्रीसहित मनुष्यके लिये नयन कमलको उन्मीलित करने वाले अज्जनके समान था ॥ ६॥ अर्थ--जो दीप शिखाका अंशरूप मल्ल था वह सौभाग्य शाली स्त्री जनके मुख रूप कमल पुष्पको देखने वाले पुरुषके लिये लक्ष्मीके ध्वज वस्त्रका पल्लप्रान्त-भाग था वही स्त्री जनसे रहित विरही मनुष्यके हृदयको भेदन करने वाला भाला था ___ भावार्थ-रात्रिके समय प्रज्वलित दीपक, संयोगी मनुष्यके लिये हित कारक और विरही-वियोगी मनुष्यको दुःखकारक थे ॥७॥ ____ अर्थ-इस समय चन्द्रमाका सुन्दर प्रकाश संयोगी स्त्रीपुरुषोंके हर्षको अत्यधिक बढ़ाने वाला है और संसारका सघन अन्धकर प्रयत्न पूर्वक सिमट कर वियोगी मनुष्योंके हृदयमें आ घुसा है ॥ ८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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