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________________ ७५० जयोदय-महाकाव्यम् [ ९४-९५-९६ दोषस्य भयादिव सदा पूरैर्नयनजलसमूहैरतनुसंभूतैस्तेविरहलक्षणः तनु स्वस्य शरीरं सिञ्चति चाण्डालादिसंसर्गे पवित्रीकरणायं स्नाति लोको यथा ॥९३॥ इति वारितोऽङ्कराङ्किततनुमनुष्यो जवेन सुरतार्थी । मुक्ताफलानि चाश्रव्याजादिव सन्ददे तस्यै ॥१४॥ टोका-इत्युक्तप्रकारेण वारितो वचनसमूहादेव जलतः कृत्वाकुरै रोमाञ्चैरेव कन्दलेरकुरिता व्याप्ता तनुः शरीरं यस्य स मनुष्यः जवेन शीघ्रतयव सुरतार्थी सुरतं वाञ्छति यद्वा शोभनां लता बल्ली वाञ्छतीति सुरतार्थी भवन् अश्र णां व्याजान्मिषात् तस्यै दूत्यै मुक्ता एव फलानि सन्ददे वत्तवानुपहाररूपेति ॥९॥ दयिताहृतस्य मनसः समातुरैः परिमूढतामिव गतैः पुरा नरैः । उदिते समुद्धृतपदैः क्षपाकरे प्रयये ततोऽनुपदिभिः स्फुरत्तरे ॥१५॥ ____टीका-दयितया प्रियया आहृतस्य वशीकृतस्य मनसश्चित्तस्य परिमूढतां मुग्यतामिव किल गतैर्नरैर्युवभिः समातुरैः पुरैव पूर्वमेव व्याकुलीभूतैः पुनस्ततः पाकरे चन्द्रमसि उदिते सति स्फुरत्तरे समुतानि पदानि यै स्तर्मनुष्यः प्रयये प्रयत्नं कृतमनुपविभिरनुकूलचरण सञ्चारस्तः ॥१५॥ अनुतनूपगतस्य वपुष्मतो गुरुतरप्रतिबिम्बमथोद्वहत् । अतिभरादिव कम्पवतः करान्मुकुरकं निपपात नतभ्रवः ॥९६॥ टीका-तनोः शरीरस्य समोपमनुतनु, उपगतस्य प्राप्तस्य वपुष्मतः कान्तिमतः प्रियस्य गुरुतरं श्रेष्ठतरं दुर्भरतरं वा प्रतिबिम्बमुद्वहत् संधारयत्, मुकुरकं वर्पणं नतभ्रवः अश्रुरूप जलसे अपने शरीरको सींचता रहती है। भाव यह है कि वह उद्दीपक आलम्बनोंके मिलने पर आँसू बहाती रहती है पर आप इतने भोलेभाले हो कि उसकी बाधाको समझते ही नहीं ।।९३॥ अर्थ-इस प्रकारके वचनरूपी जलसे जिसका शरीर रोमाञ्चरूपी अकुरोंसे व्याप्त हो रहा था ऐसा कोई एक पुरुष सुरतार्थी-संभोगका र पक्षमें र और ल के अभेदसे लताका) इच्छुक हो गया तथा उसने आँसुओंके बहाने दूतीके लिये मुक्ता फलोंकी भेंट दी ॥१४॥ ___अर्थ-वल्लभाके द्वारा हरे गये मनको मूढ़ताको प्राप्त हुए के समान जो पहले ही कामसे व्याकुल हो गये थे ऐसे मनुष्योंने अत्यन्त प्रकाशमान चन्द्रमाके उदित होनेपर दूतीके पीछे ही पैर उठाकर चल दिया ॥९५।। __ अर्थ-पतिके निकट आनेपर स्त्रियोंके शरीरमें प्रकट हुए सात्त्विक भावोंका वर्णन है । शरीरके समीप आये हुए प्रिय पतिके गुरुतर-अत्यन्त श्रेष्ठ अथवा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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