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________________ जयोदय- महाकाव्यम् [ ८०-८१ रभेदात् शुक्रो ) भृगुस्तयोर्भावो गुरुशुक्लता तथा प्रियस्य हृदयेश्वरस्य कामजन्मनि अनुरागोत्पत्तिविषये दौरुषरों श्रियं बिभर्तस्तरां स्मेति खलूत्प्रेक्षायां । गुरुशुक्रग्रहयोमंध्ये चन्द्रसम्भावनया दुरुधरयोगो भवतीति ज्योतिः शास्त्र ॥ ७९ ॥ terr अथ चक्रaarant कयावधृतं गन्धवहाविभूषणम् । अवकृष्टमिवाशु कोषतो विजिगीषोः स्मरचक्रवर्तिनः ||८०|| टीका - अथ पुनः कयान्ययावधूतं गन्धवहाविभूषणं जेतुमिच्छु विजिगीषुस्तस्य स्मरचक्रवर्तिनः कामदेवसम्राजः आशु शीघ्रमेव कोषतोऽवकृष्टं निष्कासितं चक्रवदायुध इवाबभौ ॥ ६० ॥ एकत्राङ्कितचौरसाषु पतिभिः शश्वत्वणिग्भिर्भवान् रङ्गाहो तुलितोऽसि हेमतुलयास्तां किंतु रत्नाञ्चितम् । प्रीत्या तत्तु विशालदृग्भिरधुनात्वारोप्यते मस्तके पापाप्नोषि हतोऽसि मुग्धवनितापादेषु पश्य स्थितिम् ॥ ८१ ॥ टीका - एकत्र एकस्थाने चौर: साधुपतिश्चेति द्वौ यस्तै रेकस्मिनेवाङ्कनपत्र चौर नाम साधुजन नाम च लिख्यते यैस्ते र्वणिग्भि हे रङ्ग । हेमतुलया त्वमपि तुलितोऽसि अहो आश्चर्यप्रकाशने । तत्तावदास्तां किंतु अधुना साम्प्रतं तत् हेम स्वणं तु खलु प्रीत्या प्रेमपूर्वकं रत्नेः खचितं कृत्वा विशालवग्भिरुत्फुल्ललोचनाभिर्मस्तके आरोप्यतेऽपि । हे पाप ? मुग्धवनितानां नववधूनां पादेषु चरणेषु स्थितिमाप्नोषि पश्य त्वं तावद्धतोइसि ॥ ८१ ॥ 1 ( पक्षमें गुरुशुक्लतया - गुरु और शुक्र ग्रहके योग ) के कारण धारण किये हुए कुण्डल प्रिय - पतिके हृदयमें कामभाव उत्पन्न करनेके लिये दुरुधर योगकी शोभाको अत्यधिक रूपसे धारण कर रहे थे। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार गुरु और शुक्र ग्रहके बीच चन्द्रकी संभावना होनेपर दुरुधर योग होता है ॥ ७९ ॥ अर्थ - किसी अन्य स्त्रीके द्वारा धारण किया हुआ नाक का आभूषण, विजयाभिलाषी कामदेव के शीघ्र ही म्यानसे निकाले हुएके चक्र के समान सुशोभित हो रहा था ॥ ८० ॥ अर्थ - एक ही अङ्कनपत्र -- बंहीमें चौर और श्रेष्ठ साधुओंके नामको अङ्कित करने वाले व्यापारियोंके द्वारा हे रांगे ! आप सदा स्वर्णकी तराजूसे तोले गये हो अर्थात् व्यापारियोंने जिस तराजूसे स्वर्ण तोला है उसीसे आपको तोला है । यह आश्चर्य की बात थी । पर अब वह दूर रहे। इस समय तो वह सुवर्ण विशाक्षी - स्त्रियों के द्वारा रत्न जटितकर प्रीतिपूर्वक मस्तकपर धारण किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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