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________________ ७३-७४ ] पञ्चदशः सर्गः श्रीमान् शशी कैरविणीवनेषु नरोऽपि नारी मुखचुम्बनेषु । नियुज्यमानो ૭૪ भवनप्रदेशे सदम्बरोत्तानिततल्पवेशे ॥७३॥ टीका - सबम्बरेणाकाशे नैन वस्त्र णोत्तानिते विस्तारिते तल्पस्य शयानकस्य वेशे निवेशे, भानां नक्षत्राणां वनस्य स्थानस्य प्रदेशे यद्वा भवनस्य शय्यागारस्य प्रदेशे कैरविणीवनेषु कुमुद्वतीसमूहेषु नियुज्यमानः शशी चन्द्रमाः, अपि पुनर्नारीणां स्वस्त्रीणां मुखानां चुम्बनेषु आस्वादनेषु नियुज्यमानश्च नरः श्रीमानेव ॥७३॥ सापि कला शिशिरोचितविभवा कमलं कर्तुमुपगतात्र न वा । परमहिमामृतवषिण्येषा ज्येष्ठसुखाय समस्ति विशेषात् ॥७४॥ टीका-सा सिद्धस्वभावापि पुनः कला शशिन इति शेषः । शिशिरोऽनुष्णरूप उचितों विभवो यस्यास्सा के पुरुष मलं कर्तुं भूषयितुं वा नोपगता प्रवृत्ता । पर उत्कृष्टो महिमायस्यास्सा, अमृतस्य पीयूषस्य वर्षिणी वर्षाकर्त्री विशेषात्स्पष्टरूपेण ज्येष्ठमुत्तमं षड्ऋतुजातं सुखं तस्मै समस्ति सर्वदेवाह्लादकारिणो भवति । यतः सा पिकान् कोकिलांल्लाति दिनभर ताडित तथा भ्रमर शब्दोंके बहाने रोती हुई कुमुदिनीको अपने कर स्पर्शसे सान्त्वना देता हुआ प्रसन्नमुखी कर रहा है । भाव यह है कि रातमें कुमुदिनी खिल उठी और उसपर भ्रमर गुञ्जार करने लगे ॥७२॥ अर्थ- समीचीन अम्बर - आकाशरूप वस्त्रके द्वारा जिसमें शय्या बिछाई गई है ऐसे भ-वन- प्रदेश - नक्षत्रोंके स्थानस्वरूप आकाश प्रदेशके मध्य, कुमुदिनियों के समूह में नियुज्यमान - पतित्व भावसे स्वीकृत चन्द्रमा श्रीमान्अद्भुत शोभासे सहित है । और सदम्बर- उत्तम क्षीम - रेशमी वस्त्रसे निर्मित शय्या जिसमें बिछायी गयी है ऐसे भवन प्रदेश-उत्तममहलके मध्य अपनी स्त्रियोंके मुख चुम्बन में संलग्न पुरुष भी श्रीमान् - सौभाग्य लक्ष्मीसे युक्त हैं ||७३|| Jain Education International अर्थ - जो, शिशिरोचितविभवा— शीतलता प्रदान करने वाले योग्य वैभवसे युक्त है, पर महिमा - उत्कृष्ट महिमासे सहित है, तथा अमृतवर्षणी - सुधा बरसानेवाली है ऐसी चन्द्रमाकी वह प्रसिद्ध कला कमलंकतु - किसे विभूषित करनेके लिये यहाँ नहीं आयी है ? अपितु सभीको विभूषित करनेके लिये आयी है । इस प्रकार वह कला स्पष्टरूपसे 'ज्येष्ठ सुखाय - श्रेष्ठ सुखके लिये है । १. अतिशयेन प्रशस्यं श्रेष्ठं ज्येष्ठं च । 'प्रशस्य श्रा' 'ज्या च' इत्यनेन प्रशस्य स्थाने 'श्रा' 'ज्या' इत्यादेशो भवतः सि० कौ० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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