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________________ ७४० जयोदय-महाकाव्यम् [७१-७२ टीका-पीयूषस्य पात्रं चन्द्रमास्तस्मात् यानि कानिचित् पृषन्ति विन्दवः पतन्ति तानि शुभानि प्रशस्तरूपाणि अमूनिमानि सन्ति लसन्ति। तस्यैव भिन्नस्य कुतोऽपि कारणात स्फुटितस्य पीयूषपात्रस्य कलङ्करूपेण या लेखा संजाता सा किल जनैरिवानीमघुनापि खान्नभसः स्पष्टं दृश्यते तावत् । उतेति कल्पनान्तरेऽत्र प्रयुक्तः ॥७॥ सुधाकरं श्रीकलशं दधानाम्बरं वरं क्षालयतीव मानात् । तमोमलं हन्तुमथ क्षपेयं सायस्फुरत्फेनिलनामधेयम् ॥७॥ टोका-इयं क्षपानाम रात्रिः सुधाकरं चन्द्रमेव श्रीकलशं जलपरिपूर्ण कुम्भं दधानाधारयित्री सायं संध्यालक्षणमेव स्फुरभासमानं फेनिलनामधेयं यत्र वर्तते तदेतत्तम एवं मलं हन्तुमपाकर्तु मम्बरमाकाशमेव वस्त्रं वरं यथा स्यात्तथा क्षालयतीव । किलेतिमानानाम प्रमाणविशेषावनुमान नामधेयादनुज्ञायते ॥७१॥ पादादितामह्नि रवेस्तु दीनां रुतैरिदानी रुवतीमलीनाम् । परामशन भाति निशानिशानः कुमवती स्मेरमुखीं दधानः ॥७२॥ टीका-अह्नि तावदिने तु रवेः सूर्यस्य पादैः किरणरेव चरणाघातः कृत्वादितां पीडिता यावद्दिनं सूर्यपादस्ताडितामिदानों पुनरलीनां भ्रमराणां रत: शब्दैः कृत्वा रुवती कुमद्वतीं कुमुदलता स्मेरमुखी सहासवक्त्रां वघानः कुर्वाणः निशानिशानश्चन्द्रमाः तामिमा परामृशन् भाति खलु ॥७२॥ ___ अर्थ-अमृतभाजन-चन्द्रमासे जो बूंदें निकल रही हैं वे ही शुभ नक्षत्र है और यह कलङ्ककी रेखा उसी फूटे हुए अमृतभाजनके मध्य दिखने वाला श्यामल आकाश है ।।७०॥ अर्थ-ऐसा अनुमान है कि चन्द्रमारूपी शोभायमान कलशको धारण करनेवाली रात्रिरूपी स्त्री अन्धकाररूपी मलको दूर करनेके लिये सन्ध्यारूप रीठा या साबुनसे युक्त अम्बर-आकाशरूपी अम्बर-वस्त्रको अक्छी तरह मानों धो ही रही है ॥७१।। ____ अर्थ-दिनभर सूर्यके पादों-किरणों (पक्षमें चरणाघातों)से पीड़ित अतएव भ्रमर शब्दोंके द्वारा रोती हुई दीन कुमुदिनीको यह चन्द्रमा स्पर्श करता और प्रसन्नमुखी करता हुआ सुशोभित हो रहा है। भावार्थ-जिस प्रकार कोई नायक अपनी नायिकाको अन्य पुरुषसे ताडित होनेके कारण रोती तथा दीनावस्थाको प्राप्त देख हाथसे उसका स्पर्श करता हुआ उसे प्रसन्नमुखी बना देता है उसी प्रकार चन्द्रमा भी सूर्यके पदाघातोंसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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