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________________ जयोदय -महाकाव्यम् [ ६७-६८ किरणानां बालजालेनू तन्ते प्रपचेरसौ निशाचरं रात्रिसम्भवं राक्षसं वा हतवान् नाशयति स्मेति, सलक्षणः चिह्नसहितो लक्ष्मणनामकेनानुजेन सहितश्च भवतीति ॥ ६६ ॥ काष्ठोदयेषु तारापरनामसाराः । जुहोति लाजाः किल कामसिद्धये द्विजाधिराडेष किलाधिकारात् ॥६७॥ स्वगोघृतैरुज्ज्वलितेषु ७३८ टीका - एष द्विजाधिराट् चन्द्र एव विप्रः स स्वस्य गावो रश्मय एव घृतानि तेरुज्ज्वलितेषु निर्मलीभूतेषु यद्वा ज्वालाकुलितेषु काष्ठोदयेषु विशागमेष्वेव दारु संग्रहेषु तारा इत्यपरं नामैव सारो यासां ता लाजा: भ्रष्टतन्दुलानि कामसिद्ध वाञ्छितप्राप्त्यर्थं तथा च स्मरसम्पत्यर्थमधिकारात् प्रसङ्गविशेषात् किल जुहोति हवनकर्ता भवति । चन्द्रोदये तारा मन्यतां यान्ति कामवासना चाभिव्यक्ता भवतीति यावत् ॥ ६७॥ पयोनिधेः फेनकचन्दनन्तु भङ्गाः समुत्पेष्टुमहो जयन्तु । मुदे समादाय तदेतदेष दिगङ्गना लिम्पति लाग्छनेशः ||६८ || टीका - फेनकमेव चन्वनं समुत्पेष्टु धर्षयितुं पयोनिधेः समुद्रस्य भङ्गास्तरङ्गा चन्द्रमाने विशाल करवालजाल - किरणोंके नूतन प्रपञ्चके द्वारा निशाचररात्रि सम्बन्धी सन्तमस - घोर अन्धकारको नष्ट कर दिया है । अथवा इस समय तारावराजीवनकृद्विधानी —सुग्रीवके उत्कृष्ट जीवन निर्माता तथा सलक्षण:- लक्ष्मण नामक अनुजसे सहित रामो राजा - राजा रामचन्द्रने संतमस - घोर अज्ञानी - महापराधी निशाचर - रावण रूप राक्षसको अपनो विशाल तलवारोंके समूहसे नष्ट कर दिया || ६६|| अर्थ - चन्द्रिकाका प्रसार होने पर धीरे-धीरे नक्षत्रोंके समूह दिशाओं में अन्तर्हित होने लगे इससे ऐसा जान पड़ता है मानों यह चन्द्रमा रूपी श्रेष्ठ ब्राह्मण अपने अधिकारसे काम सिद्धि-अभिलषित अर्थकी सिद्धिके लिये ( पक्षमें काम CTET अभिव्यक्तिके लिये) अपने किरण रूप घीके द्वारा प्रज्वलित - प्रकाशमान ( पक्ष में ज्वालाओंसे युक्त ) काष्ठोदय - दिशाओंके समागम में ( पक्ष में समिधानामक काष्ठ संग्रहमें) तारा - नक्षत्र नामक लाईको होम रहा है । तात्पर्य यह है कि नक्षत्र कम होने लगे तथा स्त्री-पुरुषोंमें कामकी अभिव्यक्ति शुरू हो गई ||६७ ॥ अर्थ — फेनरूपी चन्दनको घिसनेके लिये समुद्रकी लहरें जयवन्त प्रवतें । उसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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