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________________ जयोदय-महाकाव्यम् [६३ टीका-इत इन्दोश्चन्द्रमसोऽङ्घ चिह्न तावदनिमितं निष्कारणमेव केचित् जनाः शशमिति वदन्तिः केचित्पुनः कलङ्क मिति वदन्ति, ते वन्वन्तु व्यर्थमेव प्रलपन्तु । तु पुनः किन्तु सुधा कशिम्बममृतमयगुच्छकं चन्द्रबिम्बं पिपीलिकानां चिण्टिकानामावली परम्परा चुम्बति स्पृशति किलेति युक्तभाषणे तावत् । मधुरपदार्थे पिपीलिकासंसर्गस्य युक्ति युक्तत्वात् ॥६२॥ दिनेऽपि भावाच्छशिनो न तस्या च कौमुदीयं कुमुदस्य हि स्यात् । चान्द्री पदे सम्विदि भूपभूवत् सम्बन्धआधार इतो बभूव ॥६३॥ ___टीका-इयं कौमुदी कुमुदानामियं कौमुदीति कृत्वासौ कुमुदस्य हि स्यात् भवेत्, नाथ शशिनश्चन्द्रस्य, तस्य दिनेऽपि निशात्ययसमयेऽपि भावात्, यदि पुनः कौमुवी चन्द्रस्याभविष्यत्तहि दिनेऽपिचाप्राप्यस्य तत्सद्भावा विशेषात् । चन्द्रस्येयं चान्द्रोतिपदे पुनरितः सम्विदि ज्ञाने भूपस्य भूरित्येतावन्मात्रतया रक्ष्यरक्षकरूपसम्बन्धाधारो हेतुरस्तु न पुनः कार्यकारणरूपः सम्बन्धोऽत्र दृश्यते कारणसद्भावे कार्यसद्भावाविशेषात् ॥६३॥ अर्थ-चन्द्रमाके चिह्नको इधर कोई बिना कारण ही खरगोश कहते हैं और कोई कलङ्क कहते हैं सो कहें-कहते रहें। युक्तिसंगत बात तो यह है कि अमृतके गुच्छक स्वरूप चन्द्र बिम्बको चींटियोंका समूह चुम्बित कर रहा है । भाव यह है कि मधुर पदार्थ पर चीटियोंका लगना युक्तियुक्त है ।।६२॥ ___ अर्थ-संस्कृत कोषोंमें चांदनीके जो नाम प्रसिद्ध हैं उनमें कौमुदी और चान्द्री (चन्द्रिका) नाम भी शामिल है ? इन नामोंकी संगतिका विचार करने वाले कविका कहना है कि यतश्च चन्द्रमा दिनमें भी रहता है अतः यह कौमुदी चन्द्रमाकी नहीं हो सकती, यदि चन्द्रमाकी होती तो दिनमें भी रहना चाहिये । इस तर्कसे यह कौमुदी (चांदनी) चन्द्रमाकी न होकर कुमुदोंकी ही हो सकती है क्योंकि कुमुद दिनमें भी रहते हैं परन्तु चांदनी दिनमें रहती नहीं है । चांदनीको चांद्री भी कहते हैं पर इसकी संगति 'भूप की भू' राजाकी भूमिकी तरह रक्ष्य रक्षक भावसे ही सम्भव है कार्य कारण भावसे नहीं। जिस प्रकार राजा भूमिकी रक्षा करता है अतः भूमि राजाकी कहलाती है उसी प्रकार चन्द्र, चांदनीकी रक्षा करता है इसलिये चन्द्रकी कही जाती है। जिस प्रकार भूप, भूका कारण नहीं है उसी प्रकार चन्द्र, चांदनीका कारण नहीं है। यदि कार्यकारण भाव माना जावे तो जब चन्द्रमा दिनमें भी रहता है तब उसका कार्य चांदनी भी दिनमें रहना चाहिये क्योंकि कारण को रहते हुए कार्य अवश्य रहता है । तात्पर्य यह है कि लोग चन्द्रमाको महत्त्व चांदनीके कारण दिया करते हैं पर तकसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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