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________________ ६०-६१-६२ ] पञ्चदशः सर्गः गरं जगन्मोहकरं तमस्तु यदस्य चन्द्रस्य हि भक्ष्यवस्तु । अतः स्वतः कज्जलजालजाति तुषारभासो जठरं विभाति ॥ ६० ॥ टीका - यद्यस्मात्कारणात् अस्य तुषारभासः स्वच्छप्रभस्य चन्द्रस्य रात्रिपतेः भक्ष्यवस्तु भोजनं जगतां समस्तलोकानां मोहकरमतएव गरं विषरूपं तु तमस्तिमिरं होति निश्चयेन वर्ततेऽतोऽस्य जठरं नामोदरमध्यं कज्जलस्य जाल: समूहस्तस्य जातिरिव जातीर्यस्य तत् स्वत एव सहजतयैव विभाति तमसोऽधिकरणरूपत्वात् ॥ ६०॥ तमस्विनीज्योत्स्निकयोः प्रसत्तिसंवादवादी व विधुबिर्भात । सितासितप्राय मुतात्मकार्य द्विच्छायमङ्गाङ्गनयोरिहायम् ॥ ६१ ॥ टीका - तमस्विनी तमिला ज्योत्स्निका चन्द्रिका तयोद्वयोः प्रसन्नतायाः संवादवादीवाविसम्वादपक्षपाती व भवन् विधुश्चन्द्रमा इहाङ्गनोद्वयोमध्येऽयं प्रवर्तमान उताहो स्वित् सितं चासितं च यदिति बाहुल्येन भवतीति सिता सितप्रायमात्मनः कार्य शरीरं द्विच्छायं प्रभाद्वितयात्मकं बिर्भात धारयति । अङ्गेति मृदुभाषणे ॥ ६१॥ केचिच्छशं केचिदितः कलङ्कं वदन्तु होन्दोरनिमित्तमङ्कम् । पिपीलिकानां तु सुधाकशिम्बं किलावली चुम्बति चन्द्रबिम्बम् ||६२॥ अर्थ - चन्द्रमाकी भोज्य वस्तु रूप जो यह अंधकार है वह समस्त जगत्को मोहित करने वाला विष है । इस विष रूप अन्धकारको ही चन्द्रमा खाता है - नष्ट करता है इसलिये बर्फके समान शुक्ल शरीर वाला होने पर भी इसका उदर काजल समूहके समान स्वयं ही काला दिखायी देता है । ७३५ भावार्थ - यतश्च चन्द्रमाने विष तुल्य अन्धकारको खाया है इसीलिये उसका उदर - मध्यभाग कलंक बहाने काला दिखायी पड़ता है ||६० || अर्थ - यह चन्द्रमा, रात्रि और चाँदनी रूप दोनों स्त्रियोंको प्रसन्नताका समाचार कहना चाहता है इसीलिये तो रात्रिको प्रसन्न करनेके लिये कृष्ण और चांदनीको प्रसन्न करनेके लिये शुक्ल इस तरह दोनों प्रकारके शरीरको धारण कर रहा है । भावार्थ–चन्द्रमा स्वभावसे शुक्ल है और बीचमें कलङ्कसे युक्त होनेके कारण काला है । इससे ऐसा जान पड़ता है कि वह चांदनीको प्रसन्न रखने के लिये शुक्ल और रात्रिको प्रसन्न रखनेके लिये कृष्ण कान्तिसे युक्त शरीरको धारण करता है ॥ ६१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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