________________
जयोदय -महाकाव्यम्
[ ५८-५९
प्राच्यां पुरारक्तिमुपेत्य पापी शापान्निशाया अधुनोपतापी । फलङ्कितामेति तुषारसार - गात्रोऽपि राहु वयेकहारः || ५८॥ टीका - रात्र हृदयैकहारश्चन्द्रमा पुरा प्राक् सन्ध्यासमये प्राच्यां नाम पूर्व दिशायामारक्तिमरुणिमानमनुरागं वोपेत्य गत्वा निशायाः स्वनियोगिन्याः शापात् दुराशिवं - शात् अधुना साम्प्रतमुपतापी पश्चात्तापशील: स पापी स्वकृतापराधवशेन कृत्वा तां लाञ्छनयुक्ततामेति । तुषारस्यहिमस्य सार एव गात्र' शरीरं यस्य सोऽत्यन्तधवलतनुरपि भवन् कलङ्कमाप्नोति । उदयकालीनामरु णतामुज्झित्य श्वेततामनुभवन् व्यक्त कलङ्कश्चन्द्रमा भवतीति कृत्वोक्तिः ॥ ५८ ॥
७३४
स्मरामरस्यामलमातपत्रं शृङ्गारवारस्य च ताम्रपत्रम् । विराजते सम्प्रति राजसत्रं सुधामयं श्रीसदाममत्रम् ॥५९॥ टीका- राज्ञश्चन्द्रमसः सत्र छद्म यत्र तदेतत् पुरोवर्तिस्मरामरस्य कामदेवस्य निर्मलमातपत्र साम्राज्य सूचकं छत्रमेव सम्प्रति विराजते । यद्वा शृङ्गारवारस्य सुरतवेलायास्तान्नमत्र शासनख्यापकं प्रमाणपत्रमेव । किंवा पुनः सुधामयममृतपूर्ण सदां देवानाममत्र' भाजनमेव वर्तते । 'सत्र' यज्ञे सदादाने कैतवे वसने वने' इति विश्वलोचने ॥५९॥
अर्थ-रात्रिके हृदयका अद्वितीय हार - चन्द्रमा सन्ध्या समय पूर्व दिशा में लालिमा ( पक्ष में अनुराग) को प्राप्त होकर पापी हुआ, इस समय अपनी नियोगिनी रात्रिके शापसे उपतापी - संतप्त शरीर वाला हुआ । इस तरह वह बर्फके समान शुक्ल शरीरसे युक्त होता हुआ कलङ्किताको प्राप्त हो रहा है । भावार्थ - चन्द्रमाकी असली स्त्री तो रात्रि थी परन्तु वह आते समय पूर्व दिशा रूपी स्त्रीसे अनुराग कर बैठा अतः पापी हो गया । इससे कुपित हो असली स्त्री रात्रिने उसे शाप दे दिया फलस्वरूप उपतापी हो गया - उसके शरीरमें जलन उठने लगी उसकी जलनसे बिरही मनुष्यों को भी जलन होने लगी । उस जलन के प्रतिकारके लिए चन्द्रमाने अपने शरीरको बर्फ से आच्छादित किया, बर्फ से आच्छादित होनेसे वह शुक्ल तो हो गया परन्तु शुक्ल होनेपर उसका कलङ्क और भी अधिक प्रकाशमें आने लगा । एक स्त्रीको छोड़ अन्य स्त्रीसे अनुराग करने वाले नायककी यही दशा होती है ॥ ५८॥
अर्थ – यह जो राजसत्र - चन्द्रमाका छल लिये हुए शुक्ल पदार्थ दिख रहा है वह कामदेव के निर्मल छत्रके समान, अथवा संभोग समयके प्रख्यापक प्रमाण पत्र के समान अथवा अमृतसे परिपूर्ण देवपात्र के समान सुशोभित हो रहा है ॥ ५९ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org