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________________ ७३२ जयोदय-महाकाव्यम् [ ५४-५५ शुचेः पुनीतस्य हासस्य स्मितलक्षणस्य भाष्यं स्पष्टीकारक मास्यं निरीक्षमाणः पश्यन् सन् इन्दुश्चन्द्रमा इष्टस्य बिन्दुर्ज्ञाताभीष्टसंवदक: उपगवाक्षं जालकं प्रति करान् किरणानेव हस्तान्प्रसार्य तासामग्रे कृत्वा सौन्दर्यस्य लवणिम्नो भिक्षां याञ्चमति प्राप्नोति । स्त्रीणामास्यं चन्द्रमसोऽपि सुन्दरतरमिति भावः ॥ ५३ ॥ कुमुद्धवे मोदकरे स्वभावान्नवासुरा सावि नवा सुरा वा । नरः सरः श्रीसबलाबलापि सभं नभस्थानमिदं यदापि ॥५४॥ टीका - यदिदं नभस्थानमाकाशस्थलं तत् भरहितमप्यधुना सर्भभर्नक्षत्रः सहितमापि प्राप्तम् । नरो मनुष्यः स पुनरघुना रकारेण कामानलेन सहितः सरः, अबला स्त्रीजातिः सा श्रीसवमुत्सवं लातीति श्रीसबला प्रमोदसहितापि प्राप्ता खलु । कुमुदां चन्द्रविकासि कमलानां धवे स्वामिनि चंद्रमसि मोदकरे उदयमवाप्य जगतामाह्लादकारके भवति सति असौ वासुरा रात्रिरपि वान वासुरा न रात्रिर्जाता कामिनां दिनवज्जा रणकर्त्री, यद्वा नवा सुरा नूतना मदिरेव मवकर्त्री स्वभावादेव ॥ ५४ ॥ मन्ये मधुच्छत्र मधस्त्रजानिर्भवन्ति यद्विन्दुनिभानि भानि । तमोमिषादुत्थितमक्षिकाभिव्र्व्याप्तं जगत्किन्तु पुरंव नाभिः ॥ ५५ ॥ ऐसा जान पड़ता है मानों चन्द्रमा वेश्याओंके मुसकुराते एवं मनोभावको स्पष्ट करने वाले मुखको देखकर - किरणरूप हाथ पसारकर उनसे सौन्दर्यकी भिक्षा माँगनेके लिये ही घूम रहा है ॥ ५३ ॥ अर्थ - कुमुदपति - चन्द्रमाके आनन्दकारी होनेपर - पूर्णरूपसे उदित होने पर स्वभावसे ही - अपने आप वासुरा - रात्रि वासुरा - रात्रि नहीं रही किन्तु दिनके समान प्रकाशमान हो गई अथवा कामी मनुष्योंको दिनके समान जगाने वाली हो गई । अथवा नवा-सुरा - नूतन मदिरा के समान नशा करने वाली हो गई । नर - मनुष्य नर - मनुष्य ( पक्षमें कामरहित ) नहीं रहा किन्तु सर - काम सहित हो गया । अबला - स्त्री भी अबला न रह कर श्रीसबला - लक्ष्मीके समान सबला अथवा लक्ष्मीके सब - उत्सवको लानेके कारण श्रीसबला हो गई और नभस्थान - आकाशरूप स्थान नभस्थान - नक्षत्रोंका स्थान न होकर भी भस्थान - नक्षत्रोंका स्थान हो गया ॥ ५४ ॥ १. 'वासुरा वारिताय स्यान्निशाभूम्योश्च वासुरा' इति विश्व० २. 'रस्तु कामानले वह्नौ' इति विश्व० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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