SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ४९-५० actorरत्नेषु या किलेतिविकरणपरिणामो जलवानलक्षणस्तस्या दम्भात् व्यपदेशात् स्वतोऽनायासेनैवाद्रवत् स्खलतिस्मेति प्राणेश्वरसंयोगे प्रेमपरायणतया परिणतिमगच्छत् किल ॥ ४८ ॥ तमोमयं केशचयं नियम्य मरीचिभिश्चाङ्गुलिभिश्च सम्यक । विमुद्रिताम्भोरुहनेत्र विन्मुखं रजन्याः परिचुम्बतीन्दुः ॥४९॥ टीका - इन्दुर्नाम चन्द्रमाः स रजन्या निशाया नाम स्त्रियास्तमोमयमन्धकारात्मककेशचयं शिरोरुहसमूहं स्वकीयाभिर्मरीचिभिः किरणैरेवाङ्गुलिभिः करशाखाभिः कृत्वा नियम्य संभाव्य सम्मुद्रितो अम्भोरुहं जलजमेष नेत्रबिन्दुर्नयनतारकदेशो यत्र तत् तादृक्मुखं सम्यक् सुष्ठु यथा स्यात्तथा परिचुम्बति प्रेम्णास्वादयति । प्रीतिसंपर्क समुद्भूतेनानन्देन कृत्वा नेत्रनिमीलनं तु जातिस्तथात्र जलजसंकोचनमभूत्किलेति भावः ॥ ४९ ॥ ७३० जयोदय-महाकाव्यम् तमोवगुण्ठातिगता ततापि तारापदेशाच्छ्रमवारिणापि । कैरवहर्षसेतुः ॥५०॥ पत्युश्च रत्युत्सवहेतवे तु समुद्यता टीका --- इयं निशा नाम स्त्री तमोवगुण्ठातिगता तम एवावगुण्ठनमाच्छादनं तस्मावतिगता रहिता निरावरणसन्दर्शितशरीरेत्यर्थः । तथा ताराणामपदेशाच्छलाच्प्रमवारिणा पतिसंयोगेन कृत्वा समुत्थितेन प्रस्वेदजलेन च यापि प्राप्ता व्याप्तासीत् । तथा कैरवाणां नक्तं कमलानां हर्षस्य प्रसन्न भावस्य सेतुः स्थानं यद्वा कैरुधोतेश्चन्द्रप्रकाशः कृत्वा रवस्येतिलवस्य चकोरस्य हर्षसेतुः इत्येवंभूता च पुनः पत्युश्चन्द्रमसो रतिसम्बन्ध्युत्सवस्य हेतवे कारणाय तु समुद्यतास्ति ॥५०॥ खिल उठा और चन्द्रकान्त मणियोंसे झरने वाले जलके छलसे वह स्वयं ही द्रवीभूत हो गई ॥ ४८ ॥ अर्थ - चन्द्रमा रूपी पति किरणरूपी अंगुलियोंके द्वारा अन्धकार रूप केश समूहको संभालकर रजनी - रात्रिरूपी स्त्रीके उस मुख ( पक्ष में अग्रभाग) का अच्छी तरह चुम्बन कर रहा है जिसमें कमल रूपी नेत्र प्रदेश निमीलित हो रहे हैं ॥ ४९ ॥ अर्थ – रात्रिरूपी स्त्रीके शरीरपर जो अन्धकारका विस्तृत आवरण था वह दूर हो गया, ताराओंके छलसे उसके शरीर पर सात्त्विक भावके रूपमें पसीना की बूँदें झलझला उठीं और कुमुद खिल उठे, इससे ऐसा जान पड़ता है कि यह सब परम्परा, पति - चन्द्रमाके रति सम्बन्धी उत्सवके लिये ही प्रकट हुई है ॥५०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy