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________________ जयोदय- महाकाव्यम् [ ४४-४५-४६ यदबिम्बं करकं त्ववापि तथास्य सन्ध्यात्वगियोज्झितापि । कालेन तद्बीजभुजा तु भानि भवन्तु अस्थीन्यथ थूत्कृतानि ॥ ४४|| टीका - यत्किलार्कबिम्बं सूर्यमण्डलं तत्तु केरकं नाम, दाडिमफलमवापि समुपलब्धं कालेन नाम कर्त्ता तथा पुनस्तस्य करकस्य बीजानि भुनक्तीति तद्बीजभुक्तेन तद्बीजभुजा तु पुनरपि सा सायमरुणिमा नाम सा त्वगिव चर्मतुल्योज्झिता समुत्पाटय परित्यक्ता, अथानन्तरं तदास्वादयता तेन तदस्थीनि नाम बीजान्तर्गतकठिनांशरूपाणि निःसाराणि यानि थूत्कृतानि तान्येवामूनि भानि नक्षत्राणि नामतो भवन्तु तावत् ॥१४४॥ निशौतुकी तन्मयकौतु किश्वात्कपोतमादाय विधुं त्वकित्वात् । गता नभः सौधशिरोऽथ ऋक्षास्तद्दन्तपातात्पतिता हि पक्षाः ॥ ४५ ॥ टीका - निशा रात्रिर्नामौतुकी विडाली सा विधु चन्द्रमसमेव कपोतं पारावतं तन्मयकौतुकत्वात्कपोस ग्रहणक कौतुकशीलत्वात् किलादाय गृहीत्वा तु पुनरकित्वात् तत्कपोतग्रहणरूपापराधयुक्तत्वात् नभ आकाशमेव सौधं हम्यं तस्य शिर उपरिभागं गता प्राप्तवती लक्ष्यते तावत् । अथ च ऋक्षा नक्षत्राणि तस्या निशा - विडाल्या दन्तपातात् सहसेव वशनसंघातात्कृत्वा ये पक्षा: पत्राणि पतिता इतस्ततो विकीर्णास्ते मान्तीति शेषम् ।। ४५ ।। पूर्वाद्रिमूलान्तरितं ७२८ उत्सङ्गजं सूचयतीन्युदेवं शोणानना कैरव राशिभृङ्गारवैरियं दिगेव । सन्मणितप्रसङ्गा ॥ ४६ ॥ अर्थ - सूर्यास्त होनेके बाद सन्ध्याकी लालिमा भी समाप्त हो चुकी है और आकाशमें उज्ज्वल तारे चमकने लगे हैं इससे ऐसा जान पड़ता है कि कालरूपी काल - यमने सूर्यबिम्ब रूपी अनारका फल प्राप्त किया है और सन्ध्या रूपी लाल त्वचा को उजाड़कर फेंकनेके बाद उसने अनारके बीजोंको खाया है। खाते समय बीजोंके भीतरका जो कठोर अंश है उसे उसने थक दिया है, यह कठोर अंश ही तारे हैं ॥ ४४ ॥ अर्थ - रात्रिरूपी बिल्ली, कबूतर पकड़नेके कौतूहलसे चन्द्रमारूपी कबूतरको पकड़कर आकाशरूपी भवनके उपरिम भागपर जा पहुँची, वहाँ अपने अपराधी स्वभावसे उसने दांतोंके आघात से उस कबूतरके पंखे उखाड़कर फेंक दिये, वे पंखे ही नक्षत्र हैं ॥ ४५ ॥ १. करकोऽस्त्री करङ्को स्यात्कुण्डयां चाथ पुमान्खगे । कुसुम्भे दाडिमे हस्ते करका तु धनोपले ।। इति विश्व० For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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