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४२-४३ ]
पञ्चदशः सर्गः
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प्राबल्यमधुनापि नास्ति, विपरीतश्चारो विचारस्तेन हीनां भुवमीक्षमाणोऽहं प्रदे शुद्धस्वरूपेऽस्मिन् भूतले शं हिंसां न लभे यथाणौ प्रदेशं न लभे इतिवर्तमानशासन प्रशंसनं भवति ॥४१॥
सन्ध्यामिषेणोत्कषणप्रतीतमस्तावविधे
निकषाश्मनीतः । खेनोडुकरूप्यकाणि ॥ ४२ ॥
विक्रीय भानुं
भरुपिण्डमानीतानीव
टीका - अस्तावनिध्र नामास्ताचलरूपे निकषाश्मनि कर्षणपाषाणे इतः सन्ध्यामिषेण सायंकृतारुणिमच्छलेनोत्कषणप्रतीतं समुल्लिख्य प्रत्यायितं भानु सूर्यमेव भरुपिण्डं सुवर्णगोलकं विक्रीय दत्त्वा खेनाकाशेनोडुकानि नक्षत्राण्येव रूप्यकाणि नाणकानि आनीतानि समारब्धानि तत एव पुनः सुवर्णगोलकं न दृश्यते तावत् ॥४२॥
निशावधूः स्वागतमात्मभर्तुरद्दिश्य वे कैरवहर्षकर्तुः । बृहत्तमस्तोमककेशवेशे मुक्ताश्च तारा विदधात्यशेषे ||४३|| टीका - सुस्पष्टमिदं वृत्तम् ।
बल-सामर्थ्यका अभाव है और पृथिवी- - प्रजा विचार - विपरीत आचरणसे रहित है अतः मैं कहीं पर शं- हिंसाको नहीं प्राप्त कर रहा हूँ अर्थात् सर्वत्र सुख शान्तिसे प्रजा जीवन यापन करती है ।" यह अनुभव कर रहा हूँ ||४१ ॥
अर्थ- सूर्यास्त के बाद आकाशमें तारे छिटक रहे हैं जिससे ऐसा जान पड़ता मानों आकाश (रूप वणिक् ) ने अस्ताचल रूपी कसौटी पर इस संध्या के बहाने कसकर सत्यापित सूर्यरूपी स्वर्ण पिण्डको बेचकर उसके बदले नक्षत्र रूपी चाँदी के सिक्के प्राप्त किये हैं ॥४२॥
अर्थ - निशारूपी स्त्री अपने पति चन्द्रमाके स्वागतके उद्देश्यसे सुविस्तृत समस्त अन्धकार समूह रूप केश विन्यासपर तारारूप मोतियोंको धारण कर रही है ।
भावार्थ - तिमिराच्छादित समस्त आकाशमें छिटके हुए नक्षत्र ऐसे जान पड़ते हैं मानों रात्रि रूपी स्त्रीने अपने पति चन्द्रमाके स्वागत के लिये अपने केशपाश पर मोती ही लगा रक्खे हो । ॥ ४३ ॥
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१. जयोदय काव्यकी रचना ब्रिटिश शासन में हुई थी इसलिये कविने श्लेषसे उसकी प्रशंसा की है ।
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