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________________ जयोदय -महाकाव्यम् [ ४१ कलङ्किनः शासनमत्र रात्रावहो न सा के बलकारिमात्रा । विचारहीनां भुवमीक्षमाणो लभे प्रवेशं न मनागिवाणोः ॥ ४१ ॥ ७२६ टीका- - अत्र रात्रौ निशायां कलङ्किनश्चन्द्रमसः शासनमस्ति । के सूर्ये विषये बलकारिमात्रा सा न विद्यते । वीनां पक्षिणां चारः प्रचारस्तेन होनां रहितां भुवमीक्षमाणः पश्यन् सन्नहं अणोः परमाणोरिवास्मात् प्रवेश स्वरूपं न लभे पश्यामि अन्धकारबहुलत्वात् । अत्र रात्रौ कलिरूपायामागमाज्ञया कृत्वा कलङ्किनो नाम राज्ञः शासनं भवति, केवलज्ञानकारिमात्रात्र मनागपि सा न भवति —— केवलज्ञानप्रादुर्भावोऽस्मिन्समये नैवास्ति । तथा विचारहीनां भुवं सद्विवेकरहितां प्रजामीक्षमाणोऽहं प्रवे प्रकृष्टशुद्धिविषयं शं धर्म मनागपि न लभे । सद्धर्मव्याख्यानमपि व्याख्यातृदोषेण कृत्वा सदोषमेवाधुना भवति विसंवादत्वात् । यथाणोः प्रवेशं न लभे तथा धर्मस्य सत्यार्थरूपमपि । के जले पर्यन्ततः समुद्रसद्भावात् लङ्का नाम नगरी यद्वा राजधानी यस्य स कलङ्की तस्य शासनमत्र रात्राafप अपराधबहुरूपायां जनसत्तायामपि विद्यते तस्मात् अकेन सहिते साकेऽपराधिजने बलकारमात्राधुना न विद्यते न्यायशीलस्य ब्रिटिशशासनस्य सद्भावात् किलापराधिजन रही हैं ||४०|| अर्थ - रात्रिमें चन्द्रमा चमक रहा है, सूर्य अस्त हो चुका है, पृथिवी पक्षियोंके संचारसे रहित है और अन्धकारकी बहुलतासे कहीं कुछ दिखायी नहीं दे रहा है इस प्राकृतिक बातको कवि अपनी भारतीमें इस प्रकार कह रहा है रात्रिमें कलंकी - चन्द्रमा ( पक्ष में सदोष राजा) का शासन है, क सूर्यकी तिमिरापहारिणी शक्ति नष्ट हो चुकी है। पक्ष में किसी बलिष्ठ राजाकी सामर्थ्यका अस्तित्व नहीं है) और पृथिवी विचार -पक्षियोंके संचार ( पक्ष में अच्छे विचारों) से शून्य हो रही है अतः मैं परमाणुके प्रदेशकी तरह प्रदेशप्रकृष्टदेशना ( पक्ष में प्रकृष्टं ददातीति प्रदः स चावीशरचेति प्रवेशः तं निग्रहानुग्रहसामर्थ्यवन्तं नृपं ) श्रेष्ठ राजाको नहीं प्राप्त हो रहा हूँ यह आश्चर्य है । अथवा इस समय ( इस पंचम कालमें) आगम प्रसिद्ध कलङ्की - कल्कि राजाका शासन है, केवलज्ञानका प्रादुर्भाव नहीं है और पृथिवी विचार - सद्विवेकसे रहित है अतः मैं परमाणु के प्रदेशकी तरह कहीं भी शं- सुख-शान्तिको प्राप्त नहीं हो रहा हूँ यह दुःखकी बात है । अथवा इस समय कलंकी - चारों ओर क — जलसे वेष्टित होनेके कारण - लंका तुल्य सुरूपमें निवास करने वाले ब्रिटेनका शासन है साके - अपराधी जनोंमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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